तुम क्या जानो
घड़ी विरह की क्यों खल जाती, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो |
अभिलाषाएँ क्यों छल जातीं, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो ||
ढक लेता जब गहन अँधेरा इस रजनी के कोमल तन को
और इधर जग का हर प्राणी कर लेता जब बंद नयन को
नींद हमारी क्यों उड़ जाती, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो ||
असह प्रतीक्षा की घड़ियों में नहीं कोई जब साथी होता
चाँद बेचारा साथ हमारे रात रात भर को है जगता
मगर चन्द्रिका क्यों जल जाती, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो ||
प्रात उषा की स्वर्णिम किरणें आतीं करने जब उजियाला
हाल हमारा देख पूछतीं बार बार तब नाम तुम्हारा
पर वाणी चुप क्यों कर जाती, तुम क्या समझो, तुम क्या जानो ||
निष्फल जन्म सफल हो जाता
मैं मृदु तारों वाली वीणा
तुम सहलाते, तो इसमें से एक मधुर रागिनी झनकती
तुम सहलाते तो मेरा यह निष्फल जन्म सफल हो जाता ||
इन तारों की झनझन से है रोम रोम आह्लादित होता
एक गुदगुदी सी उठ जाती, पल पल फिर मधु प्लावन होता |
एक तुम्हारे मृदु चुम्बन से मधुरस फिर अमृत हो जाता ||
इस मृदुवीणा के तारों से मधुर भैरवी राग गूँजता
और कभी पीलू में विरही पपीहा पी को पास बुलाता
तुम आ जाते, तो विहाग का राग यों ही मुखरित हो जाता ||
एक तुम्हारे हाथों की मदभरी छुअन से तृप्त सदा मैं
और तुम्हारे साँसों की मदभरी गंध से मस्त सदा मैं
तुम छू लेते, मावस में भी नृत्य चन्द्रिका का हो जाता ||
वीणा तो बस छेड़ी जाने पर ही स्वर झंकृत करती है
और प्यार से सहलाने पर और अधिल मुखरित होती है
तुम यदि उपालम्भ ही देते, तो वह भी मन्त्रित हो जाता ||