बयार

दादा जी यानी बड़े सरकार अचानक परलोक सिधार गए | रात को अच्छे ख़ासे सोए थे | सुबह जागे ही नहीं | देखा तो पता चला की पंछी तो पिंजरा तोड़कर उड़ चला था | सोते सोते ही हार्टफेल हो गया था | तेरह दिन के सोग के बाद चाचा ने फिर से कचहरी जाना शुरू कर दिया था | वहाँ सोग के दिनों में कोई रोता नहीं था | बैण्ड बाजे के साथ दादा जी का अंतिम संस्कार किया गया था – नाती पोतियों और धन सम्पत्ति से भरे पूरे इंसान का स्वर्गवास हुआ था – वो भी इतनी लम्बी उम्र भोगने के बाद | घर में सारी औरतों के पास न जाने कहाँ से सफ़ेद साड़ियाँ निकल आई थीं | अपनी क़ीमती सफ़ेद साड़ियों में लिपटी दादी और घर की शेष औरतें फ़र्श पर बिछे क़ीमती क़ालीनों पर गाव तकियों के सहारे बैठी रहती थीं – वो भी जब कोई “ख़ास” मिलने वाला आता था | “आम” मिलने वालों के लिये आँगन में ही चारों तरफ़ कुर्सियाँ और सोफे लगवा दिए गए थे | लोग आते थे | घरवालों के साथ सहानुभूति जताने के लिये कुछ देर बैठते थे | मिश्रानी जी के चूल्हे पर हर समय चाय काफी चढ़ी रहती थी और नौकर चाय नाश्ते की ट्रे लिये इस तरह हर तरफ़ घूमते रहते थे जैसे आजकल शादी की पार्टियों में स्नैक्स लेकर मेहमानों की बीच घूमते हैं | घरवाले सबके साथ मुस्कुराकर बात करते थे | मेहमान माता जी के चरण स्पर्श करते थे और बैरिस्टर साहब की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करके अपने घरों को वापस लौट जाते थे | सब कुछ जैसे एक औपचारिकता भर होती थी | मालविका वास्तव में मृत्यु के उस “त्यौहार” को देखकर हैरान थी | अभी तो तेरहवीं भी नहीं हुई थी और इन लोगों पर जैसे कोई असर ही नहीं था | जैसे जब तक दादा जी थे तो ठीक था, अब नहीं हैं तो भी कोई बात नहीं | या शायद ये लोग पूरी तरह दार्शनिक थे कि आना जाना तो प्रकृति का नियम है, चिरंतन सत्य, तो व्यर्थ में दुखी होकर क्यों बैठा जाए ? जो भी हो, सारा सारा दिन जीजा-सालियों और सलहज-ननदोइयों की चुहल होती रहती थी | इसी बीच राजीव मामा जी की बेटी और बरेली वाली बुआ के बेटे की भी आँखें आपस में लड़ गई और “सोग” के इसी माहौल में दोनों की शादी की बात भी पक्की कर दी गई कि आते क्वार के नौरतों में रिश्ता और शादी एक साथ कर देंगे | अन्य नाते रिश्तेदार भी इसी फ़िराक में थे कि उनके बेटे बेटियों के लिये अच्छे सम्बन्ध हाथ लग जाएँ | सम्बन्धों की चिता पर हर कोई अपनी अपनी रोटियाँ सकने में लगा था | हाँ चाचा और तीनों बुआएँ ज़रूर उदास दिखाई देते थे जब अकेले होते थे | लोग अपने काम निकलवाने के चक्कर में अधिक थे | कुछ केवल इसलिये अपनी शक्लें दिखा रहे थे कि वक़ील साहब उनका ज़रा ख़ास ख़याल रखेंगे तो किसी की मंशा थी कि बैरिस्टर साहब के बड़े ओहदे वाले रिश्तेदारों के कारण उनके क्वालिफाइड बेटे को कोई अच्छी नौकरी मिल जाए | दादा जी के स्वर्गवास को काफी परिचित भुनाना चाहते थे |
बहरहाल, तेरह दिन का ये “मौत” का जश्न तेरहवीं के साथ सम्पन्न हो गया | दिन में शहर के लोगों का और पण्डितों का भोजन हुआ | माँ पापा से बाद में पता चला था कि तेरहों पण्डितों को कपड़े बर्तन वगैरा के साथ साथ तगड़ी दक्षिणा भी दी गई थी | दोपहर बाद पगड़ी की रस्म हुई थी, जिसमें लेने देने का सारा सामान आँगन में दहेज़ की तरह सजाया गया था | सारे रिश्तेदारों को भी उपहारों के साथ विदा किया गया था – बैरिस्टर साहब बड़े भाग्य वाले जो थे | इस सारे कार्यक्रम में पैसा पानी की तरह बहाया गया था | और फिर चाचा जी के “कचहरी” जाने की पूजा के साथ एक पखवाड़े तक चला यह जश्न अब समाप्त हो चुका था | “बड़े घरों” में मौत पर भी जश्न ही मनाया जाता है | वे लोग अपने आँसू किसी को नहीं दिखाते | उनके साथ कोई सहानुभूति दिखाए तो उनकी शान में बट्टा लगता है | शायद मिर्ज़ा ग़ालिब के इस बयान पर वे लोग सहमत थे “उसको भी अपने ग़म में मुब्तला न करो, वो तुम्हारा दोस्त है दुश्मन तो नहीं |”……
एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५ से प्रकाशित मेरे उपन्यास “बयार” से…

2 thoughts on “बयार

  1. Manju Mishra

    अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से सामाजिक जीवन के सत्य को प्रस्तुत किया है

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