मित्रों, कल एक बार फिर से हम आज़ादी की सालगिरह मना रहे हैं और साल दर साल इसी तरह से उत्साह पूर्वक इस पर्व को मनाते चले जायेंगे | पूरा देश उत्सव के रंगों में रंग हुआ है | हाँ, हम आज़ाद हिन्दुस्तान के नागरिक हैं, और गर्व है हमें अपनी इस आज़ादी पर जो अनगिनती बलिदानों के बाद हमें प्राप्त हुई | अपने साथ साथ आप सभी को स्वतंत्रता के इस पर्व पर हार्दिक बधाई देती हूँ | पर अभी भी इस बात पर विचार करना आवश्यक है कि क्या आज़ाद होकर हमने अपने कर्तव्यों का पूर्ण रूप से निर्वाह किया है ? क्या सब कुछ ठीक ठीक चल रहा है या कहीं कुछ कमी बाक़ी है ? पिछले बरस शायद कुछ लिखा था और अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया था, वही अब दोहरा रही हूँ, इस आशा के साथ कि हम सब मिलकर इस पर विचार करेंगे…
आज़ादी का दिन फिर आया |
बड़े यत्न से करी साधना, कितने जन बलिदान हो गए |
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न जाने कहाँ सभी वरदान खो गए |
आशाओं के सुमन न विकसे, पूरा हो अरमान न पाया ||१||
सोने के दिन बनने को थे, और चाँदी की सारी रातें |
धरती से आकाश मिलाने वाली हुईं बहुत सी बातें |
किन्तु रहा जैसे का तैसा, रंच न परिवर्तन हो पाया ||२||
बीत गईं कितनी ही गर्मी, सर्दी बीतीं, सरस बहारें |
भँवरे गूँजे कली कली पर, मगर रहीं फीकी गुन्जारें |
पात पुराने झरे बहुत, पर एक न नया सुमन सरसाया ||३||
वर्षा आई उमड़ घुमड़ कर, काली घनी घटाएँ छाईं |
गरजे घन कारे कजरारे, मगर बिजलियाँ ही बरसाईं |
मन का मानस रहा शुष्क ही, कभी न ओर छोर लहराया ||४||
बगिया भी है आँगन भी है, और गढ़े भी हैं हिण्डोले
पर मदमाती नहीं गुजरिया, कौन कहो फिर झूला झूले ?
मनभावन सावन फिर आया, लेकिन एक मल्हार न गाया ||५||
जगमग जगमग दीवाली के जाने कितने दीप जलाए |
नगर नगर और गाँव गाँव में हर घर आँगन सभी सजाए |
किन्तु कहाँ का गया अँधेरा, और कहाँ उजियाला छाया ?|६||
मतवाली होली भी आई, लेकिन राख़ उड़ाती आई |
कलित कपोलों पर गुलाल की लाली कहीं न पड़ी दिखाई |
ढोल बजे, नूपुर भी छनके, मगर न केसर का रंग छाया ||७||
नये नये अनगिन रंगों से देवमूरती गईं सँवारी
चन्दन अक्षत पुष्प चढ़ाए, और आरती गईं उतारी |
सत्य धर्म और शान्ति प्रेम का राग न लेकिन मिलकर गाया ||८||
महल सभी बन गए दुमहले, और दुमहले किले बन गए |
कितने मिले धूल में, लेकिन कितने नये कुबेर बन गए |
आयोगों का गठन हुआ, मन का संगठन नहीं हो पाया ||९||
फाड़ रहा है आज मनुज धरती सागर अम्बर की छाती |
चन्दा क्या, मंगल के ज्वालामुखि में भी है फेंकी बाती |
मनु के सुत ने मनुज कहाकर भी मानवता को बिसराया ||१०||
फिर भी है संतोष कि धरती अपनी है, अम्बर अपना है |
अपने घर को आज हमें फिर नई सम्पदा से भरना है |
किन्तु अभी तक हमने अपना खोया बहुत, बहुत कम पाया ||११||
ग्राथित हो रहे अनगिनती सूत्रों की डोरी में हम सारे |
होंगे सभी आपदाओं के बन्धन छिन्न समस्त हमारे |
श्रम संयम संयम अनुशासन का सुगम मन्त्र यदि हमको भाया ||१२||