आज गुरु पूर्णिमा है, सर्वप्रथम तो, हम सभी की श्रद्धा और विश्वास गुरु चरणों में दृढ़ रहे इस भावना के साथ सभी को गुरु पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ…
“गुरु पूर्णिमा” यानी भारतीय “Teachers Day” | यों तो “Teachers Day” संसार के लगभग समस्त देशों में मनाया जाता है अलग अलग तारीखों पर | मसलन आस्ट्रेलिया में अक्टूबर के अन्तिम शुक्रवार को, अर्जेंटीना में ११ सितम्बर को, चीन में दस सितम्बर को वहाँ के गणतन्त्र दिवस के अवसर पर, हाँगकाँग में पहले २८ सितम्बर को मनाया जाता था पर १९९७ के बाद वहाँ भी दस सितम्बर को ही मनाया जाता है, जर्मनी में पाँच अक्टूबर को, रूस, पनामा, मलेशिया यानी लगभग हर देश में अलग अलग तारीखों पर गुरुओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने की प्रथा है | भारत में यहाँ के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के जन्मदिवस ५ सितम्बर को Teachers Day के रूप में मनाया जाता है | किन्तु हमारे देश में गुरुपूजा की प्रथा हाल ही में प्रचलित नहीं हुई है | पौराणिक काल से आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूजा के रूप में मनाया जाता है | वैसे नेपाल में भी आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को ही गुरुपूजा की प्रथा है | इस दिन पंचम वेद “महाभारत” के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्मदिन भी है और इसीलिए इसे “व्यास पूर्णिमा” के नाम से भी जाना जाता है | महर्षि व्यास को आदि गुरु भी माना जाता है और इसीलिए व्यास पूर्णिमा “गुरु पूर्णिमा” भी कहलाती है | भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उपपुराणों की रचना की, ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को “गुरुदेव” की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को “गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है | बौद्ध ग्रंथों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था | इसलिये बौद्ध धर्मावलंबी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं |
महर्षि वेदव्यास की ही स्मृति में शिष्यगण अपने अपने गुरुओं की भी श्रद्धा भक्ति पूर्वक पूजा करते हैं | प्राचीन काल में जब आश्रम व्यवस्था थी तब २५ वर्ष की आयु हो जाने तक विद्यार्थी गुरुकुल में रहकर ही समस्त शास्त्रों का तथा युद्ध, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला इत्यादि कलाओं का, ज्योतिष आदि अनेको विधाओं आदि का अध्ययन किया करते थे | और प्रायः यह अध्ययन निःशुल्क होता था | गुरुजन इस कार्य के लिये किसी प्रकार की “दक्षिणा” आदि नहीं लेते थे | उन गुरुजनों तथा उनके आश्रम में रह रहे शिष्यों के जीवन यापन का समस्त भार गृहस्थ लोग वहन किया करते थे | उस समय आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा के दिन तथा शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात् गुरुकुल छोड़कर जब सांसारिक जीवन में प्रविष्ट होने का समय होता था उस समय भी गुरुजनों का पूजन करके यथाशक्ति गुरुदक्षिणा आदि देने की प्रथा थी | और इस गुरुपूजा के अवसर पर न केवल गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि माता पिता तथा अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी | वैसे भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं |
आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा करने का कारण सम्भवतः यह भी रहा होगा कि यह पूर्णिमा वर्षा ऋतु का आरम्भ होती है और इसके पश्चात् चार महीनों तक ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास करते थे | अतः इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के सान्निध्य का सुअवसर शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती रहती थी | क्योंकि विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी, अर्थात लिखा हुआ पढ़कर कण्ठस्थ करने का विधान उस युग में नहीं था, बल्कि गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था | गुरु के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को समझ आता था और वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को स्मरण रहती थी, उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी | इस समय मौसम भी अनुकूल होता था – न अधिक गर्मी न सर्दी | तो जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा फसल उपजाने की सामर्थ्य प्राप्त होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन की सामर्थ्य प्राप्त होती थी |
“अज्ञान्तिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया, चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः |” अर्थ सर्वविदित ही है – अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर भगाने के लिये जिस गुरु ने ज्ञान की शलाका से नेत्रों को प्रकाश प्रदान किया उस गुरु का मैं अभिवादन करता हूँ | तथा “गुरुर्ब्रह्मागुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः | गुरुर्सक्षात्परब्रहम तस्मै श्री गुरवे नमः |” अर्थात शिष्य के लिये तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश सब कुछ गुरु ही होता है | वही उसके लिये परब्रह्म होता है | भारतीय संस्कृति में गुरु को गोविन्द अर्थात उस परम तत्व ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया गया है, क्योंकि वह गुरु ही होता है जो शिष्य के मन से अज्ञान का आवरण हटाकर उसे ज्ञान अर्थात ईश्वर के दर्शन कराता है, तभी तो कहा गया है कि “गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय | बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो मिलाय ||”
तो, जिस देश में गुरु को इतना अधिक सम्मान, इतना उच्च स्थान प्राप्त हुआ है, क्या कारण है कि उसी देश में गुरुओं के साथ अभद्रता का व्यवहार किया जाता है ? गुरु पूर्णिमा बस एक पर्व भर बनकर रहा गया है, औपचारिकता भर बन कर रह गया है | हाँ, कुछ संगीत तथा इसी प्रकार की कलाओं की शिक्षा देने वाले घरानों को इसका अपवाद अवश्य कहा जा सकता है | क्योंकि वहाँ संगीत आदि का ज्ञान भी गुरुमुख से सुनकर या गुरु के समक्ष बैठकर क्रियात्मक रूप से ही ग्रहण किया जाता है | संगीत आदि कलाओं का ज्ञान कोई पुस्तकों का विषय नहीं है |
यों गुरु पूर्णिमा के इस प्रकार औपचारिक बन कर रह जाने का कारण ढूँढना भी कोई कठिन कार्य नहीं है |
सबसे पहला कारण तो यही है कि आज स्कूल कालेजों में “गुरु” अथवा “शिक्षक” न रहकर “टीचर” रह गए हैं | जिनके लिये विद्यादान शिष्य को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाने की अपेक्षा धनोपार्जन का साधन मात्र बनकर रह गया है | उसी प्रकार शिष्य के लिये भी ज्ञानार्जन उस परम तत्व से साक्षात्कार का माध्यम न रहकर अच्छी नौकरी प्राप्त करने अथवा अच्छा व्यवसाय स्थापित करने के लिये ऊँची शिक्षा ग्रहण करके उसका सर्टिफिकेट अथवा डिग्री प्राप्त करने का माध्यम ही बन गया है | शिक्षा के, ज्ञान के उच्च और उदात्त आदर्शों का व्यावसायीकरण हो गया है | ऐसे में शिष्य की सोच बन जाती है कि मैं जब अपने “टीचर” को या अपने स्कूल/कालेज को इतना पैसा फीस के रूप में दे रहा हूँ तो मेरी मर्ज़ी मैं जैसा चाहे वैसा व्यवहार करूँ | और “टीचर” की दृष्टि रहती है शिष्य के माता पिता की जेबों पर | इस स्थिति में किस प्रकार गुरु-शिष्य के मध्य वह स्वस्थ और पवित्र सम्बन्ध स्थापित हो पाएगा ?
रही सही कसर पूरी कर दी है तथाकथित “सद्गुरुओं” ने जिन्होंने समाज की धर्मभीरुता का लाभ उठाते हुए स्वयं का इतना पतन कर लिया है कि उनके लिये शिष्य से येन केन प्रकारेण धन तथा अन्य प्रकार के लाभ प्राप्त करना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है जीवन का | और इसके लिये भांति भांति के हथकण्डे ये सद्गुरु अपनाते हैं, भांति भांति के रूप धारण करते हैं, भांति भांति के आडम्बर रचते हैं | जनसमूह धर्म तथा इन गुरुओं के प्रति श्रद्धा में अँधा होकर इनके प्रवचन सुनने के लिये आता है और ये उनके साथ होली खेलते हैं | तरह तरह की बातें बताते हैं कि ऐसा करने से उन्हें धन का लाभ, धर्म का लाभ होगा और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होगा | कोई गुरु स्वयं को भगवान ही मान बैठते हैं और बेचारी भोली भाली जनता उनकी इस बात पर विश्वास भी कर लेती है सहज भाव से | ऐसे भक्तों में अनपढ़ लोग ही नहीं हैं, पढ़े लिखे लोग भी इन ढोंगी गुरुओं के चक्कर में फँस जाते हैं |
ऐसे भी गुरु हैं जो अपने आश्रमों में आने वाले शिष्य शिष्याओं के साथ अभद्र व्यवहार करते हैं | कई बार तो उनका शारीरिक शोषण तक करने से बाज़ नहीं आते | शिष्य उन्हें अपने पिता के समान सम्मान देते हैं और गुरु की खाल में छिपे ये भेडिये उनकी इस भावना का अपमान करके उनकी इज्ज़त से खेल जाते हैं | बलात्कार तक कर जाते हैं उनके साथ | और उनका मुँह बंद कराने के लिये कभी उन्हें प्रलोभन देते हैं कि ऐसा करके वे गुरु-शिष्य के बीच की दूरी मिटा रहे हैं और ऐसा करके उन्हें शीघ्र ही ज्ञान का लाभ होगा | कुछ समझदार शिष्य यदि इसका विरोध करते भी हैं तो या तो उन्हें डरा धमका कर शान्त करा दिया जाता है, या फिर उन्हें संसार से ही विदा कर दिया जाता है – सदा के लिये मुक्ति दे दी जाती है | बाद में पुलिस की जाँच पड़ताल होती रहती है, पर इन गुरुओं की घिनौनी हरकतें फिर भी बंद नहीं होतीं | शिष्याओं के साथ रास लीला रचाने वाले ऐसे कई गुरुओं के विषय में हम आए दिन टी वी पर तथा समाचार पत्रों में देखते ही रहते हैं | और आश्रम ही क्यों, स्कूल कालेज भी तो बचे नहीं हैं “टीचर्स” की इस प्रकार की घिनौनी हरकतों से | उनके विषय में रात दिन देखने पढ़ने को मिलता ही रहता है | ऐसे में तो शिष्यों के मन में गुरुओं के प्रति नफरत ही पैदा होगी, श्रद्धा का भाव किस प्रकार स्थापित हो सकता है ?
देखा जाए तो आज कुछ ही गिने चुने “सद्गुरु” ऐसे होंगे जो आगम निगम और पुराणों का, उपनिषदों आदि का महर्षि वेदव्यास के समान सम्पादन करके शिष्यों के लिये समर्पित कर दें | ऐसे गुरु कभी यह नहीं कहते कि वे गुरु हैं और लोगों को मोक्ष का मार्ग, ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखाने के लिये आए हैं | वे उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिये कभी कुछ ऐसा नहीं बताते जो तर्क संगत न हो | सरल होते हैं | विनम्र होते हैं | उनके मन में शिष्यों के प्रति भी तथा अन्य लोगों के प्रति भी अगाध स्नेह भरा होता है | ज्ञान का सच्चे अर्थों में भण्डार होते हैं | पर ऐसे गुरु हैं कितने, और उन्हें खोजा किस तरह जाए ? स्कूल कालेजों में भी विद्यार्थियों को मन से पढ़ाने वाले शिक्षक मिल सकते हैं, जो ट्यूशन के लालच में स्कूल का काम घर पर ट्यूशन के समय कराने के लिए नहीं छोड़ेंगे बल्कि स्कूल में पूरा कराएँगे | जो किताबी ज्ञान के साथ साथ बच्चों को संस्कारवान भी बना सकते हैं |
समस्या तो है, किन्तु केवल समस्या जान लेने भर से तो बात नहीं बनती | बात बनती है समस्या के समाधान से | सबसे बड़ा समाधान तो यही है कि आधुनिक तथाकथित प्रगति की अंधी दौड़ में शामिल होने के बजाए स्कूल कालेजों में भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी जहाँ “फोटोकापी” बनाने के स्थान पर एक योग्य और सुसंस्कृत व्यक्तित्व के विकास की ओर ध्यान दिया जाए | आज माता पिता में जो एक होड़ सी लग गई है कि उनके बच्चे के अंक परीक्षा में दूसरे बच्चों से अधिक आने चाहियें और इसके लिये वे ट्यूशन पर पानी की तरह पैसा भी बहाते हैं | मँहगे मँहगे विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाना “स्टेटस सिम्बल” बन गया है | यहाँ तक कि आजकल तो ट्यूशन पढ़ाना भी शान की बात मानी जाने लगी है | अपनी इस मानसिकता से मुक्ति पाकर उचित विद्यालयों और उचित शिक्षकों के पास बच्चों को पढ़ने भेजना होगा | जानना होगा कि पढ़ाई पैसे से नहीं होती वरन् गुरु में यदि अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण निष्ठा है, अपने विषय का पूर्ण ज्ञान है, शिष्य के प्रति तथा अपने कर्तव्य के प्रति पूरी ईमानदारी का भाव है तब ही वह गुरु लालच का त्याग करके अपना कार्य करेगा |
साथ ही धर्म मार्ग पर चलने वालों को “धर्म” और “आध्यात्मिकता” में अन्तर समझ कर, धर्मान्धता तथा धर्मोन्माद का त्याग करके योग्य गुरुओं का भी “निर्माण” करना होगा | एक ऐसा गुरु जो हमारे जीवन को सही दिशा दिखाए | जो स्वयं को “भगवान” न बताए, बल्कि अपने शिष्यों के मानस में ज्ञान रूपी चंद्रमा की धवल ज्योत्स्ना प्रसारित करके अज्ञान रूपी अमावस्या से शिष्य को मुक्ति दिला सके | क्योंकि गुरु केवल शिक्षक ही नहीं होता अपितु माता के समान हमें संस्कार भी प्रदान करता है और पिता के समान उचित मार्ग भी दिखाता है | हमारा आत्मबल बढ़ाता है | हमें अपनी अन्तःशक्ति से परिचित कराके उसे विकसित करने के उपाय भी बताता है | साधना का मार्ग सरल बनाता है – फिर चाहे वह साधना आत्मतत्व से साक्षात्कार के लिये हो अथवा धनोपार्जन के योग्य बनने के लिये विद्यालय और कालेजों की शिक्षा की हो | ऐसा हो जाने पर ही गुरु पूर्णिमा का पर्व सार्थक हो पाएगा | और तभी प्रत्येक शिष्य गुरु के प्रति कृतज्ञ भाव से, गुरु के चरणों में श्रद्धानत होकर समर्पित हो सकेगा |
तो आइये एक बार पुनः गुरु के चरणकमलों में सादर अभिवादन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें | जय गुरुदेव…..
प्रथम गुरु माता – पिता को श्रद्धापूर्वक नमन

पूज्य गुरु देव स्वामी वेदभारती जी के चरण कमलों में सादर नमन
