आज तो दिल्ली में सवेरे से ही बरखा नर्तकी ने अच्छा ख़ासा रास रचाया हुआ है | मौसम को देखकर अपना बचपन याद हो आया… मोरों का नृत्य, कोयल की कुहू कुहू, गोरैया की चिया ची… घर से बाहर निकलो तो हर घर के छत के पतनाले से बारिश के अमृत की नीचे गिरती मोटी धार – हम बच्चों की छतरियों को उड़ाती मस्ती में बहती नशीली हवाएँ… गड्ढों और नालियों के पानी में बहती कागज़ की नौकाएँ – जिनको देख ख़ुशी से तालियाँ बजाते बच्चे न जाने किन किन महासागरों की सैर कर आया करते थे… हालाँकि दिल्ली जैसे गगनचुम्बी इमारतों वाले महानगरों में आज न कागज़ की नावें हैं न वैसे नाविक बने बच्चों के झुण्ड, न मोर कहीं दीख पड़ते हैं न कोयल की कुहू कुहू कानों में रस घोल पाती है… और नन्ही सी गोरैया तो जैसे वृक्षों की बढती कटाई को देखकर कहीं ग़ायब ही हो गई है… फिर भी सवेरे से धूम मचाती इस बरखा रानी को देखकर अपनी ही एक पुरानी रचना याद हो आई… प्रस्तुत है.. लहराती ये पड़ीं फुहारें
इठलाती बलखाती देखो बरखा की ये पड़ीं फुहारें |
रिमझिम की मीठी तानों संग लहराती ये पड़ीं फुहारें ||
रिमझिम की अब झड़ी लगी है, प्रकृति नटी भी मुस्काई है
लहराते हर डार पात पर हरियाली भी बिखराई है |
रुत ने भी सिंगार किया है, मस्ती में भर पड़ीं फुहारें
रिमझिम की मीठी तानों संग लहराती ये पड़ीं फुहारें ||
कोयल गाती गान सुरीला, मोर दिखाते नाच नशीला
गन्ध सुगन्ध लिए पुरवाई दिशा दिशा में महकाई है |
मेघों की ता धिन मृदंग पर रास रचाती पड़ी फुहारें
रिमझिम की मीठी तानों संग लहराती ये पड़ीं फुहारें ||
पतनालों से जल की धारा गलियों से मिलने आई है
और बाहर आले में भीगी गौरैया भी बौराई है |
कागज़ की नावों को भी तो तैराती ये पडीं फुहारें
रिमझिम की मीठी तानों संग लहराती ये पड़ीं फुहारें ||