चार – माँ का अन्तिम संस्कार
माँ का अन्तिम संस्कार हो चुका था | पिताजी, चाचा और साथ गए सभी लोग शाम को शमशान से घर वापस आए थे | पिताजी आज सब दिनों से ज़्यादा थके थके लग रहे थे | जब शमशान से आए थे तो उनका और चाचा का सर मुंडा हुआ था और पीछे ठीक बीचों बीच एक छोटी सी चोटी बनी हुई थी | सरोज सारा दिन ऐसे ही मारी मारी फिरती रही थी | न तो उसे कहीं माँ दिखाई देती थी और न ही पिताजी | घर में किसी को होश नहीं थे सरोज की तरफ देखने का | हर कोई न जाने किन बातों में व्यस्त था | फकीरा ताऊ जी के यहाँ से खाना आ गया था सो सबको खिला दिया गया था | सरोज को भी पूरी सब्ज़ी दे दी गई थी | सरोज उन्हीं बदबू वाले कपड़ों में सारा दिन घूमती रही थी | पिताजी को वापस आया देख सरोज सुबह की ही तरह भागकर उनकी गोद में चढ़ गई | उसे लगा जैसे यही सबसे महफूज़ जगह है उसके लिए | पिताजी ने प्यार से उसका सर सहलाना शुरू किया | उसके बदन की गंध से वे समझ गए थे कि घर में किसी को उनकी बच्ची का खयाल नहीं है | पर किसी से कुछ कह नहीं सकते थे | बेटी को गोद में लिए वहीं ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठ गए | आने जाने वाले घर में लगातार लगे हुए थे | एक तो जवान मौत, वो भी बड़े पंडत जी की घरवाली की- सारा शहर इस दुःख की घड़ी में उनका साथ देना चाहता था | इसी बीच दादी भी वहाँ आ गईं पिताजी और चाचा के लिए चाय लेकर | चाय नीचे रख सरोज को पिताजी की गोद से लेते हुए बोलीं “जाओ बाहर जाके बच्चों के साथ खेलो | पिताजी को तंग मत करो | वो देखो, पद्मा आई है, उसके साथ खेलो…” दादी ने आदेश दिया तो वो और कसके पिताजी से लिपट गई | ये देख पिताजी ने ही जवाब दिया “रहने दे माँ, बैठी रहने दे यहीं मेरे पास | निर्मला के जाने के बाद अब हम दोनों ही एक दूसरे का सहारा हैं | बैठी रह बेटी | चाय पिएगी ? अरे कावेरी, एक कटोरी तो लाना… और अगर लाली की कच्छी कहीं दिखाई दे तो वो भी लेती आओ…” पिताजी ने बाहर देखकर बुआ को आवाज़ लगाई | बुआ एक ख़ाली कटोरी और कच्छी लेकर आ गईं तो पिताजी ने पहले सरोज की कच्छी बदल कर दूसरी पहनाई और फिर ग्लास में से थोड़ी सी चाय कटोरी में डालकर फूँक से ठण्डी करके सरोज को पकड़ा दी | सरोज एक ही घूँट में ऐसे पी गई जैसे न जाने कब कब की भूखी हो | पिताजी ने और चाय दी, सरोज उसे भी पी गई | और इस तरह सारा ही ग्लास ख़ाली कर दिया | दादी कहती भी रहीं “अरी बाप को तो पीने दो…” सरोज को अच्छी तरह याद है आज भी कि जब वो पिताजी की गोद में बैठी चाय पी रही थी तो पिताजी बड़ी अजीब सी नज़रों से उसे देख रहे थे | शायद सोच रहे होंगे कि माँ के मरने के बाद अब कौन संभालेगा उनकी बच्ची को… फिर न जाने क्या सोचकर बुआ को आवाज़ लगाई | पिताजी की आवाज़ सुन बुआ फिर से भीतर आईं सरोज को बुआ को पकड़ाते हुए बोले “ज़रा इसे ले जा और हाथ मुँह धोके कपड़े बदल कर ले आ…” सरोज जाना नहीं चाहती थी पिताजी को छोड़कर, शायद डरती थी कि माँ तो कहीं हैं नहीं, कहीं ऐसा न हो पिताजी भी कहीं चले जाएँ | पर पिताजी ने समझाया “जाओ लाली, बुआ कपड़े बदल देंगी आपके तब फिर नीचे आ जाना…” और सरोज आज्ञाकारी बच्चे की तरह बुआ के साथ वहाँ से चली गई |
कुछ दिन इसी तरह बीत गए | नीचे वाली तिदरी में एक बड़ा दीया हर समय जलता रहता था | घर में कोई भी आते जाते उस दीए में तेल डालकर उसे दिन रात प्रज्वलित रखता था | हर रोज सुबह सुबह सूरज निकलने से पहले दादी, चाची, बुआ खानदान की दूसरी औरतों के साथ उस दीए के सामने बैठकर सर पर पल्ला ढककर ज़ोर ज़ोर से रोकर कुछ रस्म अदायगी सी करती थीं | ये रुदन बड़ा स्वर और लयबद्ध गायन सा हुआ करता था | इस रुदन की आवाज़ से ही सरोज की आँख खुल जाती थी और वो आँखें मलती मलती बिस्तर से उतर कर नीचे आ जाती थी | जब माँ थीं तो सुबह सुबह गीले कपड़े से उसकी आँख और मुँह साफ़ करके और रात के कपड़े बदल कर ही उसे नीचे लाती थीं | पर अब कौन था ऐसा करने वाला | माँ तो पता नहीं कहाँ चली गई थीं | बुआ बता रही थीं कि अब माँ कभी वापस नहीं आएँगी, सबसे गुस्सा होकर जो गई हैं | सरोज मन ही मन सोचती “अच्छा है माँ न आएँ तो, इन सबको अकल आ जाएगी | कितना लड़ती थीं माँ से…” फिर दूसरे ही पल सिहर उठती “नहीं भगवान जी, मेरी माँ को वापस भेज दो | माँ ज़रूर नाना जी के घर ही गई होंगी | पिताजी से कहूँगी उन्हें बुला लाएँ | उनके बिना मेरे कपड़े कौन बदलेगा ? मुझे खाना कौन खिलेगा ? दूध कौन देगा ? नहीं… मुझे माँ चाहिए…” और तुरंत पिताजी से माँ को लिवा लाने की बात करने के लिए नीचे भागी जाती | नीचे जाकर देखती, सारी औरतें रोने धोने में लगी होती थीं और पिताजी, चाचा और फूफा जी उसी दीये के सामने सर झुकाए बैठे होते थे | थोड़ी देर उन औरतों का रोना झेलने के बाद चाचा गरज कर बोलते “अब चुप भी करोगी तुम लोग या ऐसे ही ड्रामेबाज़ी करती रहोगी ? सारा दिन ये ही नाटक चलते रहते हैं तुम लोगों के…” और सारी औरतें रोना धोना भूल अपने अपने काम काज निबटाने वहाँ से चली जातीं | चाचा का गरजना सुन सरो सब भूल जाती कि क्या कहने आई थी पिताजी से और वहीँ एक कोने में खड़ी हो जाया करती | पिताजी उसे इशारे से अपने पास बुलाते और पुचकार कर गोद में बिठा लेते | थोड़ी देर सूनी आँखों उसे देखते रहते | चाचा और फूफा जी बड़े दुःख से पिताजी की तरफ़ देखते | फिर उन्हीं दोनों में से कोई आवाज़ लगता था “अरे भई कोई ज़रा यहाँ आएगा…” जवाब में बुआ ही आया करती थीं, क्योंकि चाची तो परदा करती थीं पिताजी और फूफा जी से और दादी को ऊपर वाले कमरे में मुहल्ले पड़ोस की औरतें घेरे बैठी होती थीं | बुआ के आने पर सरोज को उनके हवाले कर दिया जाता था नहलाने धुलने के लिए | बुआ सरोज को नहलाती जतिन और झुँझलाती रहती “अब इसकी भी देखभाल हमें ही करनी पड़ेगी | खुद तो चली गई, इसे छोड़ गई हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए…” बुआ की बातों से सहमी सहमी सरोज चुपचाप नहा लिया करती थी | माँ के सामने तो देर तक नखरे करती थी | नहाने के बाद उसे दूध दिया जाता था | कई बार तो ऐसा भी हुआ कि चाची ने तेज़ गरम दूध दे दिया पीने के लिए और जब उसने ठंडा करने को कहा तो पलट कर बोलीं “तेरी माँ बैठी है क्या यहाँ जो बार बार ठंडा करती रहेगी ? जा बुला ला अपनी माँ को, कर देगी ठंडा…” बालहठ से सरोज दूध छोड़कर उठ गई और पिताजी की गोद में बैठ बिलखती हुई बोली “माँ को नाना जी के घर से लिवा कर लाओ | चाची ने कहा है अगर दूध ठंडा करना है तो माँ को बुलाकर ला कहीं से…” पितजी सब समझ गए थे, पर चुप थे | चाचा ने गरज कर चाची को बुलाया था और बोले थे “शरम नहीं आती तुम्हें ? अभी इसकी माँ को गए थीं ही रोज़ हुए हैं और अभी से तुम ऎसी बातें करने लगीं ? खबरदार जो आगे से कभी एसी कोई बात की तो जुबान खींचकर रख दूँगा…” तब पिताजी ने ही चाचा को शांत किया था “क्यों गुस्सा करते हो पंडत जी ? बहू के कहने का ये मतलब नहीं था…” फिर सरोज को चुप कराते बोले थे “न रो बेटा… आगे से चाची ऐसा नहीं कहेंगी | हम जल्दी ही आपकी माँ को वापस लेकर आएँगे…” और फिर एक ठण्डी साँस भरकर चुप हो गए थे ये सोचकर कि कहाँ से लाएँगे इसकी माँ को वापस | पिताजी के मन का अपराधबोध उनके चेहरे पर साफ़ झलकता था | जानते थे कि उनकी ही लापरवाही के कारण निर्मला की जान गई | ऐसे में चाचा और फूफा जी शायद उनके दिल की बात समझ कर उनके कंधे पर हाथ रखकर सहलाते थे, और पिताजी फीकी हँसी हँस देते थे | शायद सोचते होंगे कि बोल तो दिया बेटी से कि माँ को लिवा लाऊंगा नाना जी के घर से, पर लाऊंगा कहाँ से ? उसे लिवा लेन के लिए तो मुझे भी ऊपर जाना होगा उसके पास… और एक ठण्डी साँस भरते हुए उठ खड़े होते बाहर जाकर थोड़ी चहलक़दमी करने के लिए, रात दिन फ़र्श पर बैठे बैठे टाँगें भी तो अकड़ जाती होंगी…
माँ को मरे (सरोज के मुताबिक नाना जी के घर गए) दस दिन हो चुके थे | इन दस दिनों में घर में तो बस दूध चाय का ही इंतज़ाम होता था | खाना नाते रिश्तेदारों और पड़ोसियों के यहाँ से आया करता था | इनके यहाँ “पातक” जो था | घरवालों के साथ साथ “भीतरवाले” कुटुम्बी भी वही खाना खाया करते थे | पिताजी की भूख न जाने कहाँ गायब हो गई थी | कभी कभार एकाध फल ले लिया करते थे और फिर सारा दिन को छुट्टी | घर की औरतों को सोग मनाने से फ़ुर्सत नहीं थी | इन दस दिनों में माँ बाप की लाडली सरोज की जितनी उपेक्षा हुई थी उसे सोचकर सरोज आज मना रही थी कि भगवान सब कुछ ले ले, पर किसी के माँ बाप न छीने | एक भी चला जाए तो बच्चे की तो दुर्गत हो जाती है | उसे याद आ रहा था कि पिताजी ही थे बस जो उसे सारा दिन गोद में लिए बैठे रहते थे | गोद में लिए लिए ही आने जाने वालों से मिलते थे | पिताजी की गोद में बैठी बैठी ही खाना खा लेती थी | वहीँ बैठी बैठी दूध पी लेती थी | दादी कहती भी रहती थीं “जाओ जाकर दूसरे बच्चों के साथ खेलो | क्या सारा दिन बाप की गोद में बैठी रहती हो ? अब बच्ची नहीं रह गई बड़ी हो गई हो | जाओ बाहर पद्मा या चाची के पास…” पर दादी के बार बार कहने पर भी चाची के पास नहीं जाती थी | जानती थी कि चाची फिर कहेंगी कि अपनी माँ को बुलाकर ला | कहा तो था पिताजी से | पिताजी ने भी कहा है कि ले आएँगे माँ को | तब चिढ़ाऊँगी चाची को | बड़ी बनती हैं खुद को…
सरोज दादी की बात नहीं मानती तो पिताजी बोल देते “बैठने दे माँ… कहाँ जाएगी अब ये… अब तो मुझे ही सँभालना है सब…”
“तुम ऐसा करके और सर पर चढ़ा लोगे इसे | अरे चाची है घर में, सँभाल लेगी…” दादी जवाब देतीं, और पिताजी हलके से मुस्कुराकर चुप हो रहते | उधर पिताजी की गोद में बैठी सरोज मन ही मन खयाली पुलाव पकाने लगती “माँ आएँगी तो सब बताऊँगी माँ को | उनसे कहूँगी फिर कभी मुझे छोड़कर न जाएँ…” और ऐसे ही सोचती सोचती पिताजी की गोद में ही सो जाया करती | नहीं जानती थी कौन उसे उठाकर ऊपर चारपाई पर लिटा देता था | ऐसे ही एक रात पिताजी की गोद में सो गई थी | सुबह जब आँख खुली तो रोज़ की तरह आँखें मलती नीचे पिताजी के पास पहुँची | जब तक माँ थीं तो वे खुद प्यार से उसे जगाती थीं, हाथ मुँह साफ़ करके कपड़े बदलती थीं, दूध देती थीं, और फिर नीचे भेज दिया करती थीं | उसके बाद गोरे गोरे तीखे नैन नक्श वाले चेहरे पर हल्का सा घूँघट काढ़े, गोरी गोरी कलाइयों में लाल चूड़ियाँ पहने, गोरे पैरों मैं पायल झनकाती माँ सारा दिन भाग भाग कर घर के काम काज में लगी रहती थीं | घर के सब लोगों से तो धीरे धीरे फुसफुसाकर बातें करती थीं, पर सरोज के साथ अकेले में ठीक से बात करती थीं | कोयल जैसी मीठी बोली थी माँ की | सरोज को आश्चर्य होता था कि माँ इतनी मीठी बोलती हैं फिर क्यों सबके सामने ऐसे फुसफुसाकर बात करती हैं | एक बार उसने माँ से पूछ ही लिया था | तब माँ ने बताया था “बड़ों के सामने ज़ोर से थोड़े ही बोलते हैं…” और सरोज ने किसी समझदार की तरह “हाँ” में सर हिला दिया था |
अब जबसे माँ गई थीं तब से सरोज खुद ही जाग जाती थी और सीधी नीचे पिताजी के पास पहुँचती थी | फिर पिताजी बुआ को बुलाते थे उसके हाथ मुँह साफ़ करके कपड़े बदलने और दूध देने के लिए | बुआ उसे ऊपर बने कच्चे पक्के गुसलखाने में ले जाया करतीं और झल्लाती हुई उसके हाथ मुँह साफ़ करती बोलती जातीं “खुद तो चली गई, अपनी ये आफत छोड़ गई हमारे सर…” और झटक झटक कर उसके हाथ मुँह साफ़ करतीं | सरोज को रोना आता था, पर पिताजी को दुखी देखकर चुप कर जाती थी |
ऐसे ही उस दिन भी भागी थी पिताजी के पास | पर नीचे जाकर पता चला कि पिताजी तो सुबह सुबह ही फूफा जी और चाचा वगैरह के साथ गढ़मुक्तेश्वर चले गए थे | दादी बाकी सब औरतों के साथ वहीँ नीचे दीये के पास बैठी हुई थीं | सरोज ने दादी से पूछा कि पिताजी उसे साथ क्यों नहीं ले गए तो दादी ने रोना शुरू कर दिया | इस पर चाची खीझती हुई बोलीं “ऊल जलूल सवाल मत पूछा कर समझी ? अरे तेरी माँ को ठिकाने लगाना था या नहीं ?” सुनकर सरोज रोने लगी तो दादी ने फ़ौरन चाची को चुप कराया और सरोज को गोद में बिठाती बोलीं “ना रो मेरी लाडो, ऐसे रोते नहीं | चाची किसी बात से परेशान हैं ना, इसीलिए ऐसे बोल रही हैं | आँसू पोंछ लो और चुप हो जाओ | पिताजी बस थोड़ी ही देर में वापस आ जाएँगे | देखो अगर आप रोओगी तो आपके पिताजी का मन दुखेगा | क्या आप चाहती हो कि पिताजी दुखी हों ?” और सरोज के “ना” में सर हिलाने पर खुद अपनी ही धोती के ठुक्के से उसके आँसू पोंछ दिए | फिर चाची से बोलीं “धनिया सरोज को नहला धुलाकर कपड़े बदल दो और कुछ दूध दाध दे दो | आज बाद में समय नहीं मिलेगा | ये सब लोग वापस आएँगे तो इन लोगों की भी चाय पानी का बंदोबस्त करना होगा |” और चाची ने झुँझलाते हुए सरोज को एक तरह से खींचकर अलग किया और हाथ पकड़ कर बाहर ले गईं | बड़ी होने पर सरोज ने जाना था कि उस दिन माँ का “दसवाँ” था और पिताजी दसवें की क्रिया करने गढ़गंगा गए थे | सरोज सारा दिन ऊपर तिदरी में ही बैठी रही थी | वहीँ बुआ आकर उसे रोटी खिला गईं थीं | वो छज्जे पर टंगी पिताजी की राह देखती रही थी | शाम को जब पिताजी को बाक़ी सब आदमियों के साथ घर में घुसते देखा तो भागी भागी नीचे आई थी और दौड़कर पिताजी की गोद में चढ़ गई थी | दादी कहती भी रही थीं “अरी ज़रा साँस तो लेने दो बाप को… कहीं नहीं भागा जा रहा…” पर सरोज को लगता था अगर उसने ये पल गँवा दिया तो शायद पिताजी उसे अकेली छोड़कर ना चले जाएँ माँ को लिवा लाने…
पिताजी के साथ काफ़ी सारे लोग आए थे उस दिन | बुआ चाची और घर की दूसरी औरतों के साथ सबको चाय पिला रही थीं | चाय पीकर सब लोग वापस अपने घरों को लौट गए थे और पिताजी फिर से वहीँ दीए के सामने सरोज को गोद में लेकर बैठ गए थे | थोड़ी देर बाद तिरलोकी आके बोला था “मामा जी, वो पण्डत भंगी आया है…” (पण्डत भंगी असल में एक हलवाई था, जो था तो बाम्हन, पर ना जाने क्यों और कब उसका नाम भंगी पड़ गया था, कोई नहीं जनता )
“ठीक है, बैठक में बिठाओ…” पिताजी ने जवाब दिया और चाचा से कहा “सूरज तुम पुजारी जी को लेकर जाओ बैठक में, हम अभी आते हैं…” पिताजी उस समय चाय पी रहे थे और साथ में सरोज भी उनके ग्लास से सिप कर रही थी | चाय खत्म करके पिताजी सरोज सरोज को गोद में लिए लिए ही उठे और बैठक में चले गए | वहाँ चाचा और फूफा जी हलवाई से बात कर चुके थे | पिताजी के पहुँचने पर फूफा जी बोले “क्यों पण्डत जी, कद्दू की सब्ज़ी, आलू, आलू-गोभी- तीन सब्ज़ियाँ हो गईं | एक रायता हो जावेगा | लड्डू और कचौरी | ठीक है ?”
“हाँ ठीक है |” ठण्डी साँस भरते हुए पिताजी ने जवाब दिया “पंडित जी, देसी घी आप अपना लेते आना | यहाँ तो हमें किसी को भेजना पड़ेगा चांदपुर…” और हलवाई “जी ठीक है” बोलकर बाहर निकल गया | तभी सबने देखा कि दरवाज़े पर एक रिक्शा आकर रुका | उसमें से सरोज के नाना जी और महेश मामा नीचे उतरे | “नानाजी… महेश मामा…” उन्हें देखते ही सरोज ज़ोर से चिल्लाई और पिताजी की गोद से उतर कर बेतहाशा बाहर की तरफ़ भागी | पर ये क्या- बाहर जाकर सरोज एकदम से ठिठक गई और रुआँसी होकर बोली “माँ नहीं आई ?”
इस बीच पिताजी, चाचा और फूफा जी भी बाहर आ गए थे | पिताजी ने जल्दी से सरोज को उठाकर सीने से लगा लिया और कुछ देर उसकी पीठ सहलाते रहे | अब तक चाचा नानाजी का सामान लेकर भीतर पहुँच चुके थे | पिताजी ने झुककर नानाजी के चरण-स्पर्श किए | बूढ़े नानाजी ने कंधे पर रखे गमछे से अपने आँसू पोंछते हुए बुढ़ापे की उम्र और बेटी की मौत के सदमे से काँपता हाथ पिताजी के सर पर रखकर उन्हें आशीर्वाद दिया “जीते रहो…” और फिर सब भीतर चले गए | तिरलोकी भी बैठक भीतर से बंद कर तिदरी में आ गया था | उधर जैसे ही चाचा नानाजी का सामान लेकर भीतर पहुँचे और बताया कि हरयाने वाले आए हैं- दादी ने आँखों पर पल्ला ढककर चुपचाप सिसकना शुरू कर दिया | तभी चाची और बुआ जो बीतर रसोई में कुछ काम कर रही थीं, कुटुंब की दूसरी औरतों के साथ रोती हुई वहाँ आ गईं और ज़मीन पर बैठकर ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया “हाय री हरयाने वाली, कहाँ चली गई हम सबको छोड़कर… अरी काम से काम अपनी लौंडिया का तो सोचा होता… अरी माँ री, अब कौन संभालेगा उसे… अरी ऐसे कौन से दुःख दिए थे जो यूँ छोड़के चली गई…” और ना जाने क्या क्या गीत सा गाती ये औरतें रोती चली जा रही थीं | चाचा को ये सब बर्दाश्त तो नहीं हो रहा था, पर नानाजी का लिहाज़ करके चुप खड़े थे | आखिर फूफा जी बुआ के पास जाकर बोले “यों रोने धोने से निर्मला वापस तो नहीं आ जएगी ना… जाओ जाकर कुछ नाश्ता पानी लाओ पण्डित जी के लिए…” और फिर सबको साथ ले ऊपर वाली तिदरी में चले गए | नीचे भी रोने धोने का नाटक अब बंद हो चुका था |
उस रात नानाजी और महेश मामा वहीँ ऊपर वाली तिदरी में सोए थे सरोज के पास | अगली सुबह जब सरोज की आँख खुली तो पिताजी वहीँ बैठे थे और नानाजी उन्हें समझा रहे थे “पण्डित जी ऐसे कैसे काम चलेगा ? ज़रा सोचो तो कौन संभालेगा लाली को ? इसकी नानी भी नहीं रही जो सँभाल लेती | और अपने घर की औरतों का तो आपको पता ही है | कुछ तो सोचना ही पड़ेगा ना…”
“ठीक है पण्डित जी इस बारे में भी सोचेंगे | बाद में बात करेंगे इस बारे में | पहले सारे कर्म तो हो जाने दीजिये | ये सब तो बाद की बातें हैं | वैसे भी, एक की जान जा चुकी है हमारी लापरवाही की वजह से | अब और कुछ तो हम सोच भी नहीं सकते…” पिताजी कहीं खोए खोए से बोल रहे थे | तभी नींद से जागकर आँखें मलती सरोज बोली “नानाजी माँ क्यों नहीं आईं ? कब आएँगी ?” और पिताजी की गोद में जा छिपी |
“जल्दी ही आवेगी बेट्टी तेरी माँ | तू चिंता मत ना कर…” कहते हुए नानाजी सरोज के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए अर्थपूर्ण दृष्टि से पिताजी की तरफ़ देखने लगे | इस बीच बुआ चाय के ग्लास और कुछ मठरी वगैरा लेकर आ गई थीं | चाय रखकर बड़े प्यार से सरोज से बोलीं “आ लल्ली तुझे नहला दूँ पहले, पता ना बाद को फिर कब बखत मिले…” और प्यार से सरोज को पिताजी की गोद से उतार क्र नीचे ले गईं | सरोज को आश्चर्य हो रहा था देखकर कि आज बुआ क्यों इतना लाड़ दिखा रही थीं ? अब समझ में आता है कि तब नानाजी को दिखने के लिए वो सब नाटक हो रहा था | सरोज को नहला धुलाकर और साफ़ कपड़े पहनाकर बुआ ने तैयार कर दिया था | दूध के बाद मठरी भी खाने के लिए दी थी और बाद में हाथ मुँह पोंछकर बड़े प्यार से उससे कहा था “जा अब बाहर जाके खेल | देख कितना कुछ हो रहा है बाहर | और हाँ, आज पिताजी को तंग मत ना कीजियो | बच्चों के साथ खेलना | ठीक…?” और आज्ञाकारी बच्चे की तरह सरोज भी बच्चों के साथ खेलने में लग गई थी | सरोज को अच्छी तरह याद है उस दिन घर में ख़ासी चहल पहल थी | काफ़ी लोग घर में आ जा रहे थे | भीतर से बाहर तक सारे घर की उस दिन धुलाई की गई थी | बाहर फकीरालाल और सरोज के घर के बीच जो बड़ा चबूतरा था उस पर कनातें और शामियाना लगाकर वहाँ हलवाई बैठाए गए थे | किसी ब्याह शादी की तरह हलवाई खाना तैयार करने में लगे हुए थे | बरामदे में मेहमानों के बैठने के लिए कुर्सियाँ लगा दी गई थीं | घर में बाहर से आए कुछ ख़ास रिश्तेदारों के लिए बैठक को ख़ाली करके फ़र्श पर दरी बिछा दी गई थी | नीचे वाली तिदरी में दरी पर बैठी कुछ औरतें हलवाइयों की भेजी सब्ज़ियाँ छीलने काटने में लगी थीं तो कुछ कचौरियों के लिए पिट्ठी भरकर लोइयाँ बनाने में व्यस्त थीं | उन दिनों हलवाई सब्ज़ी छीलने काटने के लिए और लोइयाँ बनाने के लिए मैदा और दाल की पिट्ठी भीतर औरतों के पास ही भिजवा देते थे | दादी चुपचाप सर झुकाए बैठी थीं | कभी कभी जब कोई औरत आती थी तो चाची बुआ थोड़ी देर रोने की रस्म अदा करती थीं और फिर उस आने वाली औरत के साथ बातों में लग जाती थीं |
भीतर का सारा मुआयना करके सरोज बच्चों के साथ बाहर चली गई | वहाँ एक तरफ़ शामियाने के नीचे बैठे हलवाई अपने अपने कामों में लगे हुए थे | दूसरी तरफ़ कुछ लोग खाने वालों के लिए तप्पड़ बिछा रहे थे, कुछ पत्तलें और सकोरे सरैयां साफ़ कर करके एक तरफ़ लगाते जा रहे थे | सरोज को बाहर देख कुछ उससे बतिया लेते थे तो कुछ बड़ी दुःख भरी नज़रों से उसकी तरफ़ देख एक लंबी साँस भर चुप रह जाते थे | सरोज कुछ नहीं समझ पा रही थी कि ये सब हो क्या रहा था |
यों ही फ़ालतू फण्ड में घूमते घूमते बच्चे थक गए तो सरोज को बच्चोंवालों के चबूतरे पर चलकर खेलने को कहने लगे | पर सरोज ने मना कर दिया और बैठक की तरफ़ जाने के लिए घूम गई | कोई और दिन होता तो घर की खिच खिच से बचने के लिए सारा दिन वहीँ खेलती रहती | पर अब तो माँ के जाने के बाद से बच्चोंवालों के चबूतरे पर चढ़ी भी नहीं थी | आज भी ना जाने क्या बात थी कि घर में इतनी चहल पहल होते हुए भी सरोज का मन दूसरे बच्चों के साथ खेलने में नहीं लग रहा था | और कभी घर में ऎसी शादी जैसी चहल पहल होती तो सरोज भागी भागी फिरती | उसे आज भी याद है अतरसिंह चाचा की शादी में किस तरह माँ और पिताजी को भूलकर दूसरे बच्चों के साथ खेलती कूदती फिरती रही थी | बाद में माँ से डांट भी खाई थी | पर आज कुछ ऐसा था जिससे सरोज का मन थिर नहीं पा रहा था | इतने सारे मेहमान होते हुए भी सरोज को ख़ाली ख़ाली सा लग रहा था | बैठक में गई तो वहाँ काफ़ी सारे मिलने जुलने वाले बैठे हुए थे | पर सभी बिल्कुल खामोश बैठे थे | हाँ सरोज को देख अतर चाचा ने उसे गोद में उठाकर प्यार ज़रूर किया था | इस पर बाक़ी कुछ लोगों के मुँह से निकला था “बेचारी बच्ची… क्या करेंगे अब पण्डत जी…?” और अतर चाचा ने सरोज को गोद से उतारते हुए कहा था “जो भगवान को मंज़ूर… क्या किया जा सकता है…?” तभी सरोज ने देखा पिताजी, चाचा, फूफा जी, नानाजी, महेश मामा और प्रेमी पण्डित जी के साथ कुछ लोग बाहर से आ रहे थे | पिताजी ने सफ़ेद धोती पहनी हुई थी और ऊपर गमछा डाला हुआ था | देखते ही सरोज दौड़कर पिताजी से लिपट गई और उन्होंने उसे गोद में उठाकर प्यार से चूम लिया | बैठक में बैठे बाक़ी के लोग भी बाहर आ गए थे | सरोज को गोद में लिए भीतर पहुँचे तो इन लोगों को देख भीतर काम कर रही औरतों ने हाथ के काम छोड़ फिर ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया | चाचा झुंझलाकर पिताजी से बोले “ये औरतें भी ना… उफ्फ़… आओ जी आओ, बैठक में ही चलते हैं…” बैठक में जाकर सब बैठ गए तो चाचा फूफा जी से बोले “चलो पुजारी जी, खाना वाना लगवाएँ… और तो सारे कर्म हो गए… चल बे चल तिरलोकी…” और फूफा जी और तिरलोकी के साथ कुछ दूसरे लोग भी इनके साथ बाहर निकल गए खाने का बंदोबस्त करने | इधर सरोज देख रही थी पिताजी के चेहरे को, कितने थक गए थे पिताजी | उसने पिताजी के सीने में अपना मुँह छिपा लिया और उनके जनेऊ से खेलने लगी | पिताजी भी बाहर गए और सरोज को गोद से उतार कर बोले “आप अंदर जाओ, देखो सब क्या कर रहे हैं…” सरोज भीतर चली गई | वहाँ भी दरी पर सबके लिए पत्तलें लगा दी गई थीं | सरोज को बुआ ने अपने पास बैठा लिया था |
खाना हो चुका तो चाचा भीतर आकर बुआ से बोले “भई पगड़ी का वक़्त हो गया है | और देखो अब कोई रोना धोना मत करना | शांति से हो जाने दो सब कुछ…”
सरोज को लगा जैसे बाहर कुछ तमाशा होगा और भागी भागी बाहर पहुँची | वहाँ पूरे चबूतरे पर सफ़ेद चादर बिछी हुई थी | काफ़ी सारे लोग वहाँ इकठ्ठा थे | पिताजी नया सफ़ेद कुर्ता धोती पहने और सर पर टोपी लगाए बिल्कुल बीच में बैठे थे | उनके सामने चादर पर एक सफ़ेद गमछा बिछा हुआ था | उनके आस पास काफ़ी सारे कपड़े, बर्तन, खड़ाऊँ, छतरियाँ और काफ़ी सारा सामान रखा हुआ था | हर बार की तरह इस बार भी सरोज भाग कर पिताजी के पास पहुँच गई | चाचा रोकने लगे तो पिताजी ने उन्हें इशारे से रोक दिया और सरोज को पकड़ कर अपनी गोद में बैठा लिया | सरोज ने देखा प्रेमी पण्डित जी मन्त्र बोल रहे थे और पिताजी दूसरे पंडितों का टीका करते जा रहे थे और पास रखे सामान उन्हें देते जा रहे थे | सरोज मूक दर्शक बनी सब कुछ देख रही थी बड़े कौतूहल से – पर वहीँ कुछ अभाव सा उसे अभी भी महसूस हो रहा था |
पिताजी सबका टीका कर चुके तो फिर वहाँ आए लोगों ने पिताजी का टीका करना शुरू किया | सबसे पहले नानाजी ने टीका किया और कुछ रूपये और कपड़े पिताजी की गोद में रख दिए | नानाजी की आँखों से आँसू बहते हुए साफ़ दिखाई दे रहे थे | कुर्ते की बाँह से आँसू पोंछते हुए नानाजी पीछे हटे तब बाक़ी लोगों ने टीका करना शुरू किया | इस सारे काम में काफ़ी देर लग गई, क्योंकि मेहमान और रिश्तेदार बहुत आए हुए थे शहर से भी और बाहर से भी | जब सारा कार्य संपन्न हो गया तो काने नाई ने आकर सबको उठने के लिए कहा | सब आदमी औरतें उठकर छोटी मंडी के कुएँ पर पहुँचे | तिरलोकी वहाँ पहले से ही खड़ा हुआ था | उसने कुएँ से पानी खींचा और काने नाई ने सबके हाथ मुँह धुलाए | और फिर धीरे धीरे सब लोग अपने अपने घरों को लौट गए | सरोज के घरवाले भी वापस आ गए थे | हलवाई और टेन्ट वाले अपना सामन समेट चुके थे | सब लोग भीतर पहुँचे तो वहाँ माहौल बड़ा बोझिल था | पिताजी सरोज के साथ दादी के पास जाकर बैठ गए | नानाजी भी वहीँ बैठे थे | थोड़ी देर भयानक सन्नाटा पसरा रहा तिदरी में | बुआ चाय लेकर आ गई थीं तो महेश मामा ने उनके हाथों से चाय लेकर सबको देनी शुरू की | पिताजी बोले “लाओ भाई महेश, पहले हमें दो, थक गए भई हम तो…” और चाय का ग्लास पकड़ कर एक लंबी सांस भरकर नानाजी से बोले “चलो जी, आपकी बेटी को तो सिमटा दिया हमने पंडित जी… अब चैन की नींद सोएँगे…” पिताजी की आवाज़ में गहरा दर्द झलक रहा था | दादी पिताजी के सर पर हाथ फिराती बोलीं “ऐसे हलकान होने से तो अब कोई लाभ नहीं | होता वाही है जो भगवान को मंज़ूर होता है | पर अब क्या… अब तो बस एक ही फ़िकर लगी है | इस बच्ची को देख देख कर दिल छलनी होता है | कौन संभालेगा इसे अब…”
फकीरान ताई भी वहीँ बैठी थीं | फकीरा ताऊ जी से तो घर भर की रिश्तेदारी थी | यों शहर का सबसे पैसे वाला रईस खानदान था | काफ़ी लंबा चौड़ा कारोबार था जो धामपुर से लेकर चांदपुर, स्यौहारा, नगीना, नहटौर न जाने कहाँ कहाँ तक फैला हुआ था | पर सुनने में आया किसी फ़कीर की दुआओं की वजह से उनका जन्म हुआ था इसलिए उनका नाम “फकीरा” रखा गया था और शहर के लोग सम्मानस्वरूप उन्हें “फ़कीरालाल” बुलाते थे | और उनकी पत्नी कहलाईं “फ़कीरन” | यों कहने को वे बनिए थे और हम बामन, फिर भी कुछ ऐसा था दोनों परिवारों के बीच जो उन्हें सगों से भी ज़्यादा एक सूत्र में बाँधे हुए था | आज़ादी की लड़ाई में फ़कीरन ताई जी भी ताऊ जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई थीं | उस सारे गुट में सबसे अधिक उम्रदार यही जोड़ा था | फ़कीरन ताई जी ने तो काफ़ी सुनाया था दादी और चाची को जब माँ बीमार चल रही थीं | बहुत प्यार था उन्हें माँ से | माँ के जाने का उन्हें बहुत अधिक दुःख हुआ था | पर जो होना था वो तो हो गया था | अब किया क्या जा सकता था | एक ठंडी साँस भरती फकीरन ताई बोलीं “भई, लल्ली के लिए माँ तो ज़रूरी है | दरोगन की तो अब उम्र हो रही है | इसके बस का तो है नहीं इतनी छोटी बच्ची को सँभालना | और माफ़ कीजियो, इस लुच्ची रांड धनिया को कौन नहीं जानता… ख़ाक सँभालेगी इसे ? रहे तुम, तो तुम तो घर में वैसे ही कम टिको हो | अगर टिकते होते तो हरयाने वाली का वो हाल न हुआ होता | और फिर एक उमर पर तो माँ की वैसे ही सबसे ज़्यादा ज़रूरत होवे है धी की जात को | धी तो होवे ही ऎसी चीज़ है | कुछ तो सोचना ही पड़ेगा लल्ला…”
“होना क्या है जी, और कौन संभालेगा ? मुझे ही देखनी होगी…” दुखी भाव से सरोज की तरफ देखते हुए पिताजी बोले “सब कुछ हमारे कारण ही तो हुआ | हमने सच में ध्यान नहीं रखा उसका कभी | बस अपने में ही उलझे रहे हमेशा…” कहीं खोए से पिताजी बोले |
“हम तभी तो कह रहे थे पंडित जी से कि कुछ आगे की सोचें | ऐसे कैसे चलेगा…?” दादी बोलीं |
“आगे से मतलब ?” पिताजी ने पूछा और फिर उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही आगे बोले “अभी तो राख भी ठंडी नहीं हुई और अभी से आप लोग… कुछ तो सोचा होता…” और फिर सरोज को लेकर ऊपर वाली तिदरी में चले गए | सरोज ने सुना था पीछे से दादी नानाजी से बोल रही थीं “पंडित जी, हमारी तो सुनेंगे नहीं ये, अब आपको ही कुछ करना होगा | वरना ऐसे कैसे चलेगा ? आजकल के ज़माने में कोई चाची बुआ किसी की नहीं होती | फ़कीरन कुछ गलत थोड़े ही बोल रही हैं | हम भी अब बुढ़ा गए हैं | हमारी हड्डियों में अब पहले जैसी जान नहीं रही पंडित जी…” नानाजी ने क्या जवाब दिया, सरोज नहीं सुन पाई |
ऊपर पहुँच कर पिताजी ने अल्मारी में से सरोज की फ्राक निकाली और दिन भर की पहनी उसकी फ्राक निकाल कर वो धुली हुई फ्राक उसे पहना दी और चारपाई पर लेटाकर कहीं खोए खोए से उसका सर सहलाने लगे | सरोज को कब नींद आ गई कुछ नहीं पता | उसकी आँख खुली तो देखा पिताजी घबराहट में उसे झकझोर रहे थे “सरोज, क्या हुआ लाली ? क्या बोल रही है ? उठ… जाग… सरोज… लाली…” सरोज ने आँखें खोलकर देखा “माँ कहाँ गईं…? अभी टी थीं, मेरे लिए दूध बनाकर लाई थीं…” चरों तरफ़ देखती सरोज बोल रही थी “माँ को बुलाओ न पिताजी…” और हिड़क हिड़क कर रोना शुरू कर दिया | पिताजी ने कसकर सरोज को अपने सीने से लगा लिया और धीरे धीरे उसके बाल सहलाते मन ही मन शायद सोचने लगे थे “कहाँ से लाऊँ तुम्हारी माँ को बिटिया…?”
क्रमशः……….