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सौभाग्यवती भव – अध्याय चार

चार – माँ का अन्तिम संस्कार

माँ का अन्तिम संस्कार हो चुका था | पिताजी, चाचा और साथ गए सभी लोग शाम को शमशान से घर वापस आए थे | पिताजी आज सब दिनों से ज़्यादा थके थके लग रहे थे | जब शमशान से आए थे तो उनका और चाचा का सर मुंडा हुआ था और पीछे ठीक बीचों बीच एक छोटी सी चोटी बनी हुई थी | सरोज सारा दिन ऐसे ही मारी मारी फिरती रही थी | न तो उसे कहीं माँ दिखाई देती थी और न ही पिताजी | घर में किसी को होश नहीं थे सरोज की तरफ देखने का | हर कोई न जाने किन बातों में व्यस्त था | फकीरा ताऊ जी के यहाँ से खाना आ गया था सो सबको खिला दिया गया था | सरोज को भी पूरी सब्ज़ी दे दी गई थी | सरोज उन्हीं बदबू वाले कपड़ों में सारा दिन घूमती रही थी | पिताजी को वापस आया देख सरोज सुबह की ही तरह भागकर उनकी गोद में चढ़ गई | उसे लगा जैसे यही सबसे महफूज़ जगह है उसके लिए | पिताजी ने प्यार से उसका सर सहलाना शुरू किया | उसके बदन की गंध से वे समझ गए थे कि घर में किसी को उनकी बच्ची का खयाल नहीं है | पर किसी से कुछ कह नहीं सकते थे | बेटी को गोद में लिए वहीं ज़मीन पर बिछी दरी पर बैठ गए | आने जाने वाले घर में लगातार लगे हुए थे | एक तो जवान मौत, वो भी बड़े पंडत जी की घरवाली की- सारा शहर इस दुःख की घड़ी में उनका साथ देना चाहता था | इसी बीच दादी भी वहाँ आ गईं पिताजी और चाचा के लिए चाय लेकर | चाय नीचे रख सरोज को पिताजी की गोद से लेते हुए बोलीं “जाओ बाहर जाके बच्चों के साथ खेलो | पिताजी को तंग मत करो | वो देखो, पद्मा आई है, उसके साथ खेलो…” दादी ने आदेश दिया तो वो और कसके पिताजी से लिपट गई | ये देख पिताजी ने ही जवाब दिया “रहने दे माँ, बैठी रहने दे यहीं मेरे पास | निर्मला के जाने के बाद अब हम दोनों ही एक दूसरे का सहारा हैं | बैठी रह बेटी | चाय पिएगी ? अरे कावेरी, एक कटोरी तो लाना… और अगर लाली की कच्छी कहीं दिखाई दे तो वो भी लेती आओ…” पिताजी ने बाहर देखकर बुआ को आवाज़ लगाई | बुआ एक ख़ाली कटोरी और कच्छी लेकर आ गईं तो पिताजी ने पहले सरोज की कच्छी बदल कर दूसरी पहनाई और फिर ग्लास में से थोड़ी सी चाय कटोरी में डालकर फूँक से ठण्डी करके सरोज को पकड़ा दी | सरोज एक ही घूँट में ऐसे पी गई जैसे न जाने कब कब की भूखी हो | पिताजी ने और चाय दी, सरोज उसे भी पी गई | और इस तरह सारा ही ग्लास ख़ाली कर दिया | दादी कहती भी रहीं “अरी बाप को तो पीने दो…” सरोज को अच्छी तरह याद है आज भी कि जब वो पिताजी की गोद में बैठी चाय पी रही थी तो पिताजी बड़ी अजीब सी नज़रों से उसे देख रहे थे | शायद सोच रहे होंगे कि माँ के मरने के बाद अब कौन संभालेगा उनकी बच्ची को… फिर न जाने क्या सोचकर बुआ को आवाज़ लगाई | पिताजी की आवाज़ सुन बुआ फिर से भीतर आईं सरोज को बुआ को पकड़ाते हुए बोले “ज़रा इसे ले जा और हाथ मुँह धोके कपड़े बदल कर ले आ…” सरोज जाना नहीं चाहती थी पिताजी को छोड़कर, शायद डरती थी कि माँ तो कहीं हैं नहीं, कहीं ऐसा न हो पिताजी भी कहीं चले जाएँ | पर पिताजी ने समझाया “जाओ लाली, बुआ कपड़े बदल देंगी आपके तब फिर नीचे आ जाना…” और सरोज आज्ञाकारी बच्चे की तरह बुआ के साथ वहाँ से चली गई |

कुछ दिन इसी तरह बीत गए | नीचे वाली तिदरी में एक बड़ा दीया हर समय जलता रहता था | घर में कोई भी आते जाते उस दीए में तेल डालकर उसे दिन रात प्रज्वलित रखता था | हर रोज सुबह सुबह सूरज निकलने से पहले दादी, चाची, बुआ खानदान की दूसरी औरतों के साथ उस दीए के सामने बैठकर सर पर पल्ला ढककर ज़ोर ज़ोर से रोकर कुछ रस्म अदायगी सी करती थीं | ये रुदन बड़ा स्वर और लयबद्ध गायन सा हुआ करता था | इस रुदन की आवाज़ से ही सरोज की आँख खुल जाती थी और वो आँखें मलती मलती बिस्तर से उतर कर नीचे आ जाती थी | जब माँ थीं तो सुबह सुबह गीले कपड़े से उसकी आँख और मुँह साफ़ करके और रात के कपड़े बदल कर ही उसे नीचे लाती थीं | पर अब कौन था ऐसा करने वाला | माँ तो पता नहीं कहाँ चली गई थीं | बुआ बता रही थीं कि अब माँ कभी वापस नहीं आएँगी, सबसे गुस्सा होकर जो गई हैं | सरोज मन ही मन सोचती “अच्छा है माँ न आएँ तो, इन सबको अकल आ जाएगी | कितना लड़ती थीं माँ से…” फिर दूसरे ही पल सिहर उठती “नहीं भगवान जी, मेरी माँ को वापस भेज दो | माँ ज़रूर नाना जी के घर ही गई होंगी | पिताजी से कहूँगी उन्हें बुला लाएँ | उनके बिना मेरे कपड़े कौन बदलेगा ? मुझे खाना कौन खिलेगा ? दूध कौन देगा ? नहीं… मुझे माँ चाहिए…” और तुरंत पिताजी से माँ को लिवा लाने की बात करने के लिए नीचे भागी जाती | नीचे जाकर देखती, सारी औरतें रोने धोने में लगी होती थीं और पिताजी, चाचा और फूफा जी उसी दीये के सामने सर झुकाए बैठे होते थे | थोड़ी देर उन औरतों का रोना झेलने के बाद चाचा गरज कर बोलते “अब चुप भी करोगी तुम लोग या ऐसे ही ड्रामेबाज़ी करती रहोगी ? सारा दिन ये ही नाटक चलते रहते हैं तुम लोगों के…” और सारी औरतें रोना धोना भूल अपने अपने काम काज निबटाने वहाँ से चली जातीं | चाचा का गरजना सुन सरो सब भूल जाती कि क्या कहने आई थी पिताजी से और वहीँ एक कोने में खड़ी हो जाया करती | पिताजी उसे इशारे से अपने पास बुलाते और पुचकार कर गोद में बिठा लेते | थोड़ी देर सूनी आँखों उसे देखते रहते | चाचा और फूफा जी बड़े दुःख से पिताजी की तरफ़ देखते | फिर उन्हीं दोनों में से कोई आवाज़ लगता था “अरे भई कोई ज़रा यहाँ आएगा…” जवाब में बुआ ही आया करती थीं, क्योंकि चाची तो परदा करती थीं पिताजी और फूफा जी से और दादी को ऊपर वाले कमरे में मुहल्ले पड़ोस की औरतें घेरे बैठी होती थीं | बुआ के आने पर सरोज को उनके हवाले कर दिया जाता था नहलाने धुलने के लिए | बुआ सरोज को नहलाती जतिन और झुँझलाती रहती “अब इसकी भी देखभाल हमें ही करनी पड़ेगी | खुद तो चली गई, इसे छोड़ गई हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए…” बुआ की बातों से सहमी सहमी सरोज चुपचाप नहा लिया करती थी | माँ के सामने तो देर तक नखरे करती थी | नहाने के बाद उसे दूध दिया जाता था | कई बार तो ऐसा भी हुआ कि चाची ने तेज़ गरम दूध दे दिया पीने के लिए और जब उसने ठंडा करने को कहा तो पलट कर बोलीं “तेरी माँ बैठी है क्या यहाँ जो बार बार ठंडा करती रहेगी ? जा बुला ला अपनी माँ को, कर देगी ठंडा…” बालहठ से सरोज दूध छोड़कर उठ गई और पिताजी की गोद में बैठ बिलखती हुई बोली “माँ को नाना जी के घर से लिवा कर लाओ | चाची ने कहा है अगर दूध ठंडा करना है तो माँ को बुलाकर ला कहीं से…” पितजी सब समझ गए थे, पर चुप थे | चाचा ने गरज कर चाची को बुलाया था और बोले थे “शरम नहीं आती तुम्हें ? अभी इसकी माँ को गए थीं ही रोज़ हुए हैं और अभी से तुम ऎसी बातें करने लगीं ? खबरदार जो आगे से कभी एसी कोई बात की तो जुबान खींचकर रख दूँगा…” तब पिताजी ने ही चाचा को शांत किया था “क्यों गुस्सा करते हो पंडत जी ? बहू के कहने का ये मतलब नहीं था…” फिर सरोज को चुप कराते बोले थे “न रो बेटा… आगे से चाची ऐसा नहीं कहेंगी | हम जल्दी ही आपकी माँ को वापस लेकर आएँगे…” और फिर एक ठण्डी साँस भरकर चुप हो गए थे ये सोचकर कि कहाँ से लाएँगे इसकी माँ को वापस | पिताजी के मन का अपराधबोध उनके चेहरे पर साफ़ झलकता था | जानते थे कि उनकी ही लापरवाही के कारण निर्मला की जान गई | ऐसे में चाचा और फूफा जी शायद उनके दिल की बात समझ कर उनके कंधे पर हाथ रखकर सहलाते थे, और पिताजी फीकी हँसी हँस देते थे | शायद सोचते होंगे कि बोल तो दिया बेटी से कि माँ को लिवा लाऊंगा नाना जी के घर से, पर लाऊंगा कहाँ से ? उसे लिवा लेन के लिए तो मुझे भी ऊपर जाना होगा उसके पास… और एक ठण्डी साँस भरते हुए उठ खड़े होते बाहर जाकर थोड़ी चहलक़दमी करने के लिए, रात दिन फ़र्श पर बैठे बैठे टाँगें भी तो अकड़ जाती होंगी…

माँ को मरे (सरोज के मुताबिक नाना जी के घर गए) दस दिन हो चुके थे | इन दस दिनों में घर में तो बस दूध चाय का ही इंतज़ाम होता था | खाना नाते रिश्तेदारों और पड़ोसियों के यहाँ से आया करता था | इनके यहाँ “पातक” जो था | घरवालों के साथ साथ “भीतरवाले” कुटुम्बी भी वही खाना खाया करते थे | पिताजी की भूख न जाने कहाँ गायब हो गई थी | कभी कभार एकाध फल ले लिया करते थे और फिर सारा दिन को छुट्टी | घर की औरतों को सोग मनाने से फ़ुर्सत नहीं थी | इन दस दिनों में माँ बाप की लाडली सरोज की जितनी उपेक्षा हुई थी उसे सोचकर सरोज आज मना रही थी कि भगवान सब कुछ ले ले, पर किसी के माँ बाप न छीने | एक भी चला जाए तो बच्चे की तो दुर्गत हो जाती है | उसे याद आ रहा था कि पिताजी ही थे बस जो उसे सारा दिन गोद में लिए बैठे रहते थे | गोद में लिए लिए ही आने जाने वालों से मिलते थे | पिताजी की गोद में बैठी बैठी ही खाना खा लेती थी | वहीँ बैठी बैठी दूध पी लेती थी | दादी कहती भी रहती थीं “जाओ जाकर दूसरे बच्चों के साथ खेलो | क्या सारा दिन बाप की गोद में बैठी रहती हो ? अब बच्ची नहीं रह गई बड़ी हो गई हो | जाओ बाहर पद्मा या चाची के पास…” पर दादी के बार बार कहने पर भी चाची के पास नहीं जाती थी | जानती थी कि चाची फिर कहेंगी कि अपनी माँ को बुलाकर ला | कहा तो था पिताजी से | पिताजी ने भी कहा है कि ले आएँगे माँ को | तब चिढ़ाऊँगी चाची को | बड़ी बनती हैं खुद को…

सरोज दादी की बात नहीं मानती तो पिताजी बोल देते “बैठने दे माँ… कहाँ जाएगी अब ये… अब तो मुझे ही सँभालना है सब…”

“तुम ऐसा करके और सर पर चढ़ा लोगे इसे | अरे चाची है घर में, सँभाल लेगी…” दादी जवाब देतीं, और पिताजी हलके से मुस्कुराकर चुप हो रहते | उधर पिताजी की गोद में बैठी सरोज मन ही मन खयाली पुलाव पकाने लगती “माँ आएँगी तो सब बताऊँगी माँ को | उनसे कहूँगी फिर कभी मुझे छोड़कर न जाएँ…” और ऐसे ही सोचती सोचती पिताजी की गोद में ही सो जाया करती | नहीं जानती थी कौन उसे उठाकर ऊपर चारपाई पर लिटा देता था | ऐसे ही एक रात पिताजी की गोद में सो गई थी | सुबह जब आँख खुली तो रोज़ की तरह आँखें मलती नीचे पिताजी के पास पहुँची | जब तक माँ थीं तो वे खुद प्यार से उसे जगाती थीं, हाथ मुँह साफ़ करके कपड़े बदलती थीं, दूध देती थीं, और फिर नीचे भेज दिया करती थीं | उसके बाद गोरे गोरे तीखे नैन नक्श वाले चेहरे पर हल्का सा घूँघट काढ़े, गोरी गोरी कलाइयों में लाल चूड़ियाँ पहने, गोरे पैरों मैं पायल झनकाती माँ सारा दिन भाग भाग कर घर के काम काज में लगी रहती थीं | घर के सब लोगों से तो धीरे धीरे फुसफुसाकर बातें करती थीं, पर सरोज के साथ अकेले में ठीक से बात करती थीं | कोयल जैसी मीठी बोली थी माँ की | सरोज को आश्चर्य होता था कि माँ इतनी मीठी बोलती हैं फिर क्यों सबके सामने ऐसे फुसफुसाकर बात करती हैं | एक बार उसने माँ से पूछ ही लिया था | तब माँ ने बताया था “बड़ों के सामने ज़ोर से थोड़े ही बोलते हैं…” और सरोज ने किसी समझदार की तरह “हाँ” में सर हिला दिया था |

अब जबसे माँ गई थीं तब से सरोज खुद ही जाग जाती थी और सीधी नीचे पिताजी के पास पहुँचती थी | फिर पिताजी बुआ को बुलाते थे उसके हाथ मुँह साफ़ करके कपड़े बदलने और दूध देने के लिए | बुआ उसे ऊपर बने कच्चे पक्के गुसलखाने में ले जाया करतीं और झल्लाती हुई उसके हाथ मुँह साफ़ करती बोलती जातीं “खुद तो चली गई, अपनी ये आफत छोड़ गई हमारे सर…” और झटक झटक कर उसके हाथ मुँह साफ़ करतीं | सरोज को रोना आता था, पर पिताजी को दुखी देखकर चुप कर जाती थी |

ऐसे ही उस दिन भी भागी थी पिताजी के पास | पर नीचे जाकर पता चला कि पिताजी तो सुबह सुबह ही फूफा जी और चाचा वगैरह के साथ गढ़मुक्तेश्वर चले गए थे | दादी बाकी सब औरतों के साथ वहीँ नीचे दीये के पास बैठी हुई थीं | सरोज ने दादी से पूछा कि पिताजी उसे साथ क्यों नहीं ले गए तो दादी ने रोना शुरू कर दिया | इस पर चाची खीझती हुई बोलीं “ऊल जलूल सवाल मत पूछा कर समझी ? अरे तेरी माँ को ठिकाने लगाना था या नहीं ?” सुनकर सरोज रोने लगी तो दादी ने फ़ौरन चाची को चुप कराया और सरोज को गोद में बिठाती बोलीं “ना रो मेरी लाडो, ऐसे रोते नहीं | चाची किसी बात से परेशान हैं ना, इसीलिए ऐसे बोल रही हैं | आँसू पोंछ लो और चुप हो जाओ | पिताजी बस थोड़ी ही देर में वापस आ जाएँगे | देखो अगर आप रोओगी तो आपके पिताजी का मन दुखेगा | क्या आप चाहती हो कि पिताजी दुखी हों ?” और सरोज के “ना” में सर हिलाने पर खुद अपनी ही धोती के ठुक्के से उसके आँसू पोंछ दिए | फिर चाची से बोलीं “धनिया सरोज को नहला धुलाकर कपड़े बदल दो और कुछ दूध दाध दे दो | आज बाद में समय नहीं मिलेगा | ये सब लोग वापस आएँगे तो इन लोगों की भी चाय पानी का बंदोबस्त करना होगा |” और चाची ने झुँझलाते हुए सरोज को एक तरह से खींचकर अलग किया और हाथ पकड़ कर बाहर ले गईं | बड़ी होने पर सरोज ने जाना था कि उस दिन माँ का “दसवाँ” था और पिताजी दसवें की क्रिया करने गढ़गंगा गए थे | सरोज सारा दिन ऊपर तिदरी में ही बैठी रही थी | वहीँ बुआ आकर उसे रोटी खिला गईं थीं | वो छज्जे पर टंगी पिताजी की राह देखती रही थी | शाम को जब पिताजी को बाक़ी सब आदमियों के साथ घर में घुसते देखा तो भागी भागी नीचे आई थी और दौड़कर पिताजी की गोद में चढ़ गई थी | दादी कहती भी रही थीं “अरी ज़रा साँस तो लेने दो बाप को… कहीं नहीं भागा जा रहा…” पर सरोज को लगता था अगर उसने ये पल गँवा दिया तो शायद पिताजी उसे अकेली छोड़कर ना चले जाएँ माँ को लिवा लाने…

पिताजी के साथ काफ़ी सारे लोग आए थे उस दिन | बुआ चाची और घर की दूसरी औरतों के साथ सबको चाय पिला रही थीं | चाय पीकर सब लोग वापस अपने घरों को लौट गए थे और पिताजी फिर से वहीँ दीए के सामने सरोज को गोद में लेकर बैठ गए थे | थोड़ी देर बाद तिरलोकी आके बोला था “मामा जी, वो पण्डत भंगी आया है…” (पण्डत भंगी असल में एक हलवाई था, जो था तो बाम्हन, पर ना जाने क्यों और कब उसका नाम भंगी पड़ गया था, कोई नहीं जनता )

“ठीक है, बैठक में बिठाओ…” पिताजी ने जवाब दिया और चाचा से कहा “सूरज तुम पुजारी जी को लेकर जाओ बैठक में, हम अभी आते हैं…” पिताजी उस समय चाय पी रहे थे और साथ में सरोज भी उनके ग्लास से सिप कर रही थी | चाय खत्म करके पिताजी सरोज सरोज को गोद में लिए लिए ही उठे और बैठक में चले गए | वहाँ चाचा और फूफा जी हलवाई से बात कर चुके थे | पिताजी के पहुँचने पर फूफा जी बोले “क्यों पण्डत जी, कद्दू की सब्ज़ी, आलू, आलू-गोभी- तीन सब्ज़ियाँ हो गईं | एक रायता हो जावेगा | लड्डू और कचौरी | ठीक है ?”

“हाँ ठीक है |” ठण्डी साँस भरते हुए पिताजी ने जवाब दिया “पंडित जी, देसी घी आप अपना लेते आना | यहाँ तो हमें किसी को भेजना पड़ेगा चांदपुर…” और हलवाई “जी ठीक है” बोलकर बाहर निकल गया | तभी सबने देखा कि दरवाज़े पर एक रिक्शा आकर रुका | उसमें से सरोज के नाना जी और महेश मामा नीचे उतरे | “नानाजी… महेश मामा…” उन्हें देखते ही सरोज ज़ोर से चिल्लाई और पिताजी की गोद से उतर कर बेतहाशा बाहर की तरफ़ भागी | पर ये क्या- बाहर जाकर सरोज एकदम से ठिठक गई और रुआँसी होकर बोली “माँ नहीं आई ?”

इस बीच पिताजी, चाचा और फूफा जी भी बाहर आ गए थे | पिताजी ने जल्दी से सरोज को उठाकर सीने से लगा लिया और कुछ देर उसकी पीठ सहलाते रहे | अब तक चाचा नानाजी का सामान लेकर भीतर पहुँच चुके थे | पिताजी ने झुककर नानाजी के चरण-स्पर्श किए | बूढ़े नानाजी ने कंधे पर रखे गमछे से अपने आँसू पोंछते हुए बुढ़ापे की उम्र और बेटी की मौत के सदमे से काँपता हाथ पिताजी के सर पर रखकर उन्हें आशीर्वाद दिया “जीते रहो…” और फिर सब भीतर चले गए | तिरलोकी भी बैठक भीतर से बंद कर तिदरी में आ गया था | उधर जैसे ही चाचा नानाजी का सामान लेकर भीतर पहुँचे और बताया कि हरयाने वाले आए हैं- दादी ने आँखों पर पल्ला ढककर चुपचाप सिसकना शुरू कर दिया | तभी चाची और बुआ जो बीतर रसोई में कुछ काम कर रही थीं, कुटुंब की दूसरी औरतों के साथ रोती हुई वहाँ आ गईं और ज़मीन पर बैठकर ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया “हाय री हरयाने वाली, कहाँ चली गई हम सबको छोड़कर… अरी काम से काम अपनी लौंडिया का तो सोचा होता… अरी माँ री, अब कौन संभालेगा उसे… अरी ऐसे कौन से दुःख दिए थे जो यूँ छोड़के चली गई…” और ना जाने क्या क्या गीत सा गाती ये औरतें रोती चली जा रही थीं | चाचा को ये सब बर्दाश्त तो नहीं हो रहा था, पर नानाजी का लिहाज़ करके चुप खड़े थे | आखिर फूफा जी बुआ के पास जाकर बोले “यों रोने धोने से निर्मला वापस तो नहीं आ जएगी ना… जाओ जाकर कुछ नाश्ता पानी लाओ पण्डित जी के लिए…” और फिर सबको साथ ले ऊपर वाली तिदरी में चले गए | नीचे भी रोने धोने का नाटक अब बंद हो चुका था |

उस रात नानाजी और महेश मामा वहीँ ऊपर वाली तिदरी में सोए थे सरोज के पास | अगली सुबह जब सरोज की आँख खुली तो पिताजी वहीँ बैठे थे और नानाजी उन्हें समझा रहे थे “पण्डित जी ऐसे कैसे काम चलेगा ? ज़रा सोचो तो कौन संभालेगा लाली को ? इसकी नानी भी नहीं रही जो सँभाल लेती | और अपने घर की औरतों का तो आपको पता ही है | कुछ तो सोचना ही पड़ेगा ना…”

“ठीक है पण्डित जी इस बारे में भी सोचेंगे | बाद में बात करेंगे इस बारे में | पहले सारे कर्म तो हो जाने दीजिये | ये सब तो बाद की बातें हैं | वैसे भी, एक की जान जा चुकी है हमारी लापरवाही की वजह से | अब और कुछ तो हम सोच भी नहीं सकते…” पिताजी कहीं खोए खोए से बोल रहे थे | तभी नींद से जागकर आँखें मलती सरोज बोली “नानाजी माँ क्यों नहीं आईं ? कब आएँगी ?” और पिताजी की गोद में जा छिपी |

“जल्दी ही आवेगी बेट्टी तेरी माँ | तू चिंता मत ना कर…” कहते हुए नानाजी सरोज के सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए अर्थपूर्ण दृष्टि से पिताजी की तरफ़ देखने लगे | इस बीच बुआ चाय के ग्लास और कुछ मठरी वगैरा लेकर आ गई थीं | चाय रखकर बड़े प्यार से सरोज से बोलीं “आ लल्ली तुझे नहला दूँ पहले, पता ना बाद को फिर कब बखत मिले…” और प्यार से सरोज को पिताजी की गोद से उतार क्र नीचे ले गईं | सरोज को आश्चर्य हो रहा था देखकर कि आज बुआ क्यों इतना लाड़ दिखा रही थीं ? अब समझ में आता है कि तब नानाजी को दिखने के लिए वो सब नाटक हो रहा था | सरोज को नहला धुलाकर और साफ़ कपड़े पहनाकर बुआ ने तैयार कर दिया था | दूध के बाद मठरी भी खाने के लिए दी थी और बाद में हाथ मुँह पोंछकर बड़े प्यार से उससे कहा था “जा अब बाहर जाके खेल | देख कितना कुछ हो रहा है बाहर | और हाँ, आज पिताजी को तंग मत ना कीजियो | बच्चों के साथ खेलना | ठीक…?” और आज्ञाकारी बच्चे की तरह सरोज भी बच्चों के साथ खेलने में लग गई थी | सरोज को अच्छी तरह याद है उस दिन घर में ख़ासी चहल पहल थी | काफ़ी लोग घर में आ जा रहे थे | भीतर से बाहर तक सारे घर की उस दिन धुलाई की गई थी | बाहर फकीरालाल और सरोज के घर के बीच जो बड़ा चबूतरा था उस पर कनातें और शामियाना लगाकर वहाँ हलवाई बैठाए गए थे | किसी ब्याह शादी की तरह हलवाई खाना तैयार करने में लगे हुए थे | बरामदे में मेहमानों के बैठने के लिए कुर्सियाँ लगा दी गई थीं | घर में बाहर से आए कुछ ख़ास रिश्तेदारों के लिए बैठक को ख़ाली करके फ़र्श पर दरी बिछा दी गई थी | नीचे वाली तिदरी में दरी पर बैठी कुछ औरतें हलवाइयों की भेजी सब्ज़ियाँ छीलने काटने में लगी थीं तो कुछ कचौरियों के लिए पिट्ठी भरकर लोइयाँ बनाने में व्यस्त थीं | उन दिनों हलवाई सब्ज़ी छीलने काटने के लिए और लोइयाँ बनाने के लिए मैदा और दाल की पिट्ठी भीतर औरतों के पास ही भिजवा देते थे | दादी चुपचाप सर झुकाए बैठी थीं | कभी कभी जब कोई औरत आती थी तो चाची बुआ थोड़ी देर रोने की रस्म अदा करती थीं और फिर उस आने वाली औरत के साथ बातों में लग जाती थीं |

भीतर का सारा मुआयना करके सरोज बच्चों के साथ बाहर चली गई | वहाँ एक तरफ़ शामियाने के नीचे बैठे हलवाई अपने अपने कामों में लगे हुए थे | दूसरी तरफ़ कुछ लोग खाने वालों के लिए तप्पड़ बिछा रहे थे, कुछ पत्तलें और सकोरे सरैयां साफ़ कर करके एक तरफ़ लगाते जा रहे थे | सरोज को बाहर देख कुछ उससे बतिया लेते थे तो कुछ बड़ी दुःख भरी नज़रों से उसकी तरफ़ देख एक लंबी साँस भर चुप रह जाते थे | सरोज कुछ नहीं समझ पा रही थी कि ये सब हो क्या रहा था |

यों ही फ़ालतू फण्ड में घूमते घूमते बच्चे थक गए तो सरोज को बच्चोंवालों के चबूतरे पर चलकर खेलने को कहने लगे | पर सरोज ने मना कर दिया और बैठक की तरफ़ जाने के लिए घूम गई | कोई और दिन होता तो घर की खिच खिच से बचने के लिए सारा दिन वहीँ खेलती रहती | पर अब तो माँ के जाने के बाद से बच्चोंवालों के चबूतरे पर चढ़ी भी नहीं थी | आज भी ना जाने क्या बात थी कि घर में इतनी चहल पहल होते हुए भी सरोज का मन दूसरे बच्चों के साथ खेलने में नहीं लग रहा था | और कभी घर में ऎसी शादी जैसी चहल पहल होती तो सरोज भागी भागी फिरती | उसे आज भी याद है अतरसिंह चाचा की शादी में किस तरह माँ और पिताजी को भूलकर दूसरे बच्चों के साथ खेलती कूदती फिरती रही थी | बाद में माँ से डांट भी खाई थी | पर आज कुछ ऐसा था जिससे सरोज का मन थिर नहीं पा रहा था | इतने सारे मेहमान होते हुए भी सरोज को ख़ाली ख़ाली सा लग रहा था | बैठक में गई तो वहाँ काफ़ी सारे मिलने जुलने वाले बैठे हुए थे | पर सभी बिल्कुल खामोश बैठे थे | हाँ सरोज को देख अतर चाचा ने उसे गोद में उठाकर प्यार ज़रूर किया था | इस पर बाक़ी कुछ लोगों के मुँह से निकला था “बेचारी बच्ची… क्या करेंगे अब पण्डत जी…?” और अतर चाचा ने सरोज को गोद से उतारते हुए कहा था “जो भगवान को मंज़ूर… क्या किया जा सकता है…?” तभी सरोज ने देखा पिताजी, चाचा, फूफा जी, नानाजी, महेश मामा और प्रेमी पण्डित जी के साथ कुछ लोग बाहर से आ रहे थे | पिताजी ने सफ़ेद धोती पहनी हुई थी और ऊपर गमछा डाला हुआ था | देखते ही सरोज दौड़कर पिताजी से लिपट गई और उन्होंने उसे गोद में उठाकर प्यार से चूम लिया | बैठक में बैठे बाक़ी के लोग भी बाहर आ गए थे | सरोज को गोद में लिए भीतर पहुँचे तो इन लोगों को देख भीतर काम कर रही औरतों ने हाथ के काम छोड़ फिर ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया | चाचा झुंझलाकर पिताजी से बोले “ये औरतें भी ना… उफ्फ़… आओ जी आओ, बैठक में ही चलते हैं…” बैठक में जाकर सब बैठ गए तो चाचा फूफा जी से बोले “चलो पुजारी जी, खाना वाना लगवाएँ… और तो सारे कर्म हो गए… चल बे चल तिरलोकी…” और फूफा जी और तिरलोकी के साथ कुछ दूसरे लोग भी इनके साथ बाहर निकल गए खाने का बंदोबस्त करने | इधर सरोज देख रही थी पिताजी के चेहरे को, कितने थक गए थे पिताजी | उसने पिताजी के सीने में अपना मुँह छिपा लिया और उनके जनेऊ से खेलने लगी | पिताजी भी बाहर गए और सरोज को गोद से उतार कर बोले “आप अंदर जाओ, देखो सब क्या कर रहे हैं…” सरोज भीतर चली गई | वहाँ भी दरी पर सबके लिए पत्तलें लगा दी गई थीं | सरोज को बुआ ने अपने पास बैठा लिया था |

खाना हो चुका तो चाचा भीतर आकर बुआ से बोले “भई पगड़ी का वक़्त हो गया है | और देखो अब कोई रोना धोना मत करना | शांति से हो जाने दो सब कुछ…”

सरोज को लगा जैसे बाहर कुछ तमाशा होगा और भागी भागी बाहर पहुँची | वहाँ पूरे चबूतरे पर सफ़ेद चादर बिछी हुई थी | काफ़ी सारे लोग वहाँ इकठ्ठा थे | पिताजी नया सफ़ेद कुर्ता धोती पहने और सर पर टोपी लगाए बिल्कुल बीच में बैठे थे | उनके सामने चादर पर एक सफ़ेद गमछा बिछा हुआ था | उनके आस पास काफ़ी सारे कपड़े, बर्तन, खड़ाऊँ, छतरियाँ और काफ़ी सारा सामान रखा हुआ था | हर बार की तरह इस बार भी सरोज भाग कर पिताजी के पास पहुँच गई | चाचा रोकने लगे तो पिताजी ने उन्हें इशारे से रोक दिया और सरोज को पकड़ कर अपनी गोद में बैठा लिया | सरोज ने देखा प्रेमी पण्डित जी मन्त्र बोल रहे थे और पिताजी दूसरे पंडितों का टीका करते जा रहे थे और पास रखे सामान उन्हें देते जा रहे थे | सरोज मूक दर्शक बनी सब कुछ देख रही थी बड़े कौतूहल से – पर वहीँ कुछ अभाव सा उसे अभी भी महसूस हो रहा था |

पिताजी सबका टीका कर चुके तो फिर वहाँ आए लोगों ने पिताजी का टीका करना शुरू किया | सबसे पहले नानाजी ने टीका किया और कुछ रूपये और कपड़े पिताजी की गोद में रख दिए | नानाजी की आँखों से आँसू बहते हुए साफ़ दिखाई दे रहे थे | कुर्ते की बाँह से आँसू पोंछते हुए नानाजी पीछे हटे तब बाक़ी लोगों ने टीका करना शुरू किया | इस सारे काम में काफ़ी देर लग गई, क्योंकि मेहमान और रिश्तेदार बहुत आए हुए थे शहर से भी और बाहर से भी | जब सारा कार्य संपन्न हो गया तो काने नाई ने आकर सबको उठने के लिए कहा | सब आदमी औरतें उठकर छोटी मंडी के कुएँ पर पहुँचे | तिरलोकी वहाँ पहले से ही खड़ा हुआ था | उसने कुएँ से पानी खींचा और काने नाई ने सबके हाथ मुँह धुलाए | और फिर धीरे धीरे सब लोग अपने अपने घरों को लौट गए | सरोज के घरवाले भी वापस आ गए थे | हलवाई और टेन्ट वाले अपना सामन समेट चुके थे | सब लोग भीतर पहुँचे तो वहाँ माहौल बड़ा बोझिल था | पिताजी सरोज के साथ दादी के पास जाकर बैठ गए | नानाजी भी वहीँ बैठे थे | थोड़ी देर भयानक सन्नाटा पसरा रहा तिदरी में | बुआ चाय लेकर आ गई थीं तो महेश मामा ने उनके हाथों से चाय लेकर सबको देनी शुरू की | पिताजी बोले “लाओ भाई महेश, पहले हमें दो, थक गए भई हम तो…” और चाय का ग्लास पकड़ कर एक लंबी सांस भरकर नानाजी से बोले “चलो जी, आपकी बेटी को तो सिमटा दिया हमने पंडित जी… अब चैन की नींद सोएँगे…” पिताजी की आवाज़ में गहरा दर्द झलक रहा था | दादी पिताजी के सर पर हाथ फिराती बोलीं “ऐसे हलकान होने से तो अब कोई लाभ नहीं | होता वाही है जो भगवान को मंज़ूर होता है | पर अब क्या… अब तो बस एक ही फ़िकर लगी है | इस बच्ची को देख देख कर दिल छलनी होता है | कौन संभालेगा इसे अब…”

फकीरान ताई भी वहीँ बैठी थीं | फकीरा ताऊ जी से तो घर भर की रिश्तेदारी थी | यों शहर का सबसे पैसे वाला रईस खानदान था | काफ़ी लंबा चौड़ा कारोबार था जो धामपुर से लेकर चांदपुर, स्यौहारा, नगीना, नहटौर न जाने कहाँ कहाँ तक फैला हुआ था | पर सुनने में आया किसी फ़कीर की दुआओं की वजह से उनका जन्म हुआ था इसलिए उनका नाम “फकीरा” रखा गया था और शहर के लोग सम्मानस्वरूप उन्हें “फ़कीरालाल” बुलाते थे | और उनकी पत्नी कहलाईं “फ़कीरन” | यों कहने को वे बनिए थे और हम बामन, फिर भी कुछ ऐसा था दोनों परिवारों के बीच जो उन्हें सगों से भी ज़्यादा एक सूत्र में बाँधे हुए था | आज़ादी की लड़ाई में फ़कीरन ताई जी भी ताऊ जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हुई थीं | उस सारे गुट में सबसे अधिक उम्रदार यही जोड़ा था | फ़कीरन ताई जी ने तो काफ़ी सुनाया था दादी और चाची को जब माँ बीमार चल रही थीं | बहुत प्यार था उन्हें माँ से | माँ के जाने का उन्हें बहुत अधिक दुःख हुआ था | पर जो होना था वो तो हो गया था | अब किया क्या जा सकता था | एक ठंडी साँस भरती फकीरन ताई बोलीं “भई, लल्ली के लिए माँ तो ज़रूरी है | दरोगन की तो अब उम्र हो रही है | इसके बस का तो है नहीं इतनी छोटी बच्ची को सँभालना | और माफ़ कीजियो, इस लुच्ची रांड धनिया को कौन नहीं जानता… ख़ाक सँभालेगी इसे ? रहे तुम, तो तुम तो घर में वैसे ही कम टिको हो | अगर टिकते होते तो हरयाने वाली का वो हाल न हुआ होता | और फिर एक उमर पर तो माँ की वैसे ही सबसे ज़्यादा ज़रूरत होवे है धी की जात को | धी तो होवे ही ऎसी चीज़ है | कुछ तो सोचना ही पड़ेगा लल्ला…”

“होना क्या है जी, और कौन संभालेगा ? मुझे ही देखनी होगी…” दुखी भाव से सरोज की तरफ देखते हुए पिताजी बोले “सब कुछ हमारे कारण ही तो हुआ | हमने सच में ध्यान नहीं रखा उसका कभी | बस अपने में ही उलझे रहे हमेशा…” कहीं खोए से पिताजी बोले |

“हम तभी तो कह रहे थे पंडित जी से कि कुछ आगे की सोचें | ऐसे कैसे चलेगा…?” दादी बोलीं |

“आगे से मतलब ?” पिताजी ने पूछा और फिर उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही आगे बोले “अभी तो राख भी ठंडी नहीं हुई और अभी से आप लोग… कुछ तो सोचा होता…” और फिर सरोज को लेकर ऊपर वाली तिदरी में चले गए | सरोज ने सुना था पीछे से दादी नानाजी से बोल रही थीं “पंडित जी, हमारी तो सुनेंगे नहीं ये, अब आपको ही कुछ करना होगा | वरना ऐसे कैसे चलेगा ? आजकल के ज़माने में कोई चाची बुआ किसी की नहीं होती | फ़कीरन कुछ गलत थोड़े ही बोल रही हैं | हम भी अब बुढ़ा गए हैं | हमारी हड्डियों में अब पहले जैसी जान नहीं रही पंडित जी…” नानाजी ने क्या जवाब दिया, सरोज नहीं सुन पाई |

ऊपर पहुँच कर पिताजी ने अल्मारी में से सरोज की फ्राक निकाली और दिन भर की पहनी उसकी फ्राक निकाल कर वो धुली हुई फ्राक उसे पहना दी और चारपाई पर लेटाकर कहीं खोए खोए से उसका सर सहलाने लगे | सरोज को कब नींद आ गई कुछ नहीं पता | उसकी आँख खुली तो देखा पिताजी घबराहट में उसे झकझोर रहे थे “सरोज, क्या हुआ लाली ? क्या बोल रही है ? उठ… जाग… सरोज… लाली…” सरोज ने आँखें खोलकर देखा “माँ कहाँ गईं…? अभी टी थीं, मेरे लिए दूध बनाकर लाई थीं…” चरों तरफ़ देखती सरोज बोल रही थी “माँ को बुलाओ न पिताजी…” और हिड़क हिड़क कर रोना शुरू कर दिया | पिताजी ने कसकर सरोज को अपने सीने से लगा लिया और धीरे धीरे उसके बाल सहलाते मन ही मन शायद सोचने लगे थे “कहाँ से लाऊँ तुम्हारी माँ को बिटिया…?”

क्रमशः……….

सौभाग्यवती भव – अध्याय ३

तीन – पिताजी

सारे परिवार को लेकर पिताजी धामपुर पहुँचे | कुटुंबवालों को उनका वापस आना अच्छा नहीं लगा था, क्योंकि अब उन्हें पिताजी को मकान वापस देना पड़ता | पिताजी ने आश्वासन दिया कि वे पूरे घर पर कब्ज़ा नहीं चाहते, बस उनके परिवार को रहने के लिए जगह दे दी जाए | तब यह बाहर वाला हिस्सा उन लोगों ने ख़ाली कर दिया था | इस हिस्से में बाहर चबूतरे पर चढ़ते ही एक बैठक थी | बैठक के पीछी एक तिदरी थी | तिदरी के सामने छोटा सा आँगन और उसके बाद रसोई | फिर ऊपर तिदरी और बैठक की छत पर आगे पीछे दो कमरे, भंडार और गुसलख़ाना बने हुए थे | इस तरह कुल मिलाकर तीन कमरे, एक बैठक, रसोई और एक गुसलख़ाना हो जाते थे | “पाख़ाना” एक ही था सारे कुटुंब का | वह भी कहने भर को पक्का था, क्योंकि सरसुतिया और उसका मरद हर रोज़ सर पर मैला ढो कर ले जाया करते थे | आने जाने का रास्ता भी सबका एक ही था- एक दहलीज़ से होकर | पिताजी ने सोचा अभी के लिए काफ़ी है, बाद में सोचेंगे | और इस तरह परिवार इस घर में खुद को व्यवस्थित करने में लग गया था |

धामपुर वापस तो आ गए थे, पर आगे की राह बहुत कठिन थी | अब तक तो परिवार ने सरकारी ही सही, पर शाही ठाठ भोगे थे, पर अब कुछ भी पल्ले नहीं था | ऊपर से दादी को दादाजी के मरने से ऐसा सदमा पहुँचा था कि उनहोंने बोलना चालना ही बंद कर दिया था | बस सूनी आँखों छत निहारती फ़र्श पर बैठी रहती थीं | कोई खाना सामने लाकर रख देता तो ऐसे ही पड़ा रहता, जब तक पिताजी अपने हाथों से न खिलाते | पिताजी सारा समय बस दादी की ही सेवा टहल में लगे रहते | न कहीं जाते न आते | चाचा और बुआ सारा दिन मुँह लटकाए बैठे रहते | दादी के पीहर से राशन पानी आ जाता था | एक नौकरानी भी उन्होंने भेज दी थी घर के काम के लिए | तो खाना बनाने या घर किसी और काम की कोई चिंता नहीं थी | पिताजी को चिंता थी तो बस दादी के ठीक होने की और अपने लिए कोई काम तलाशने की | छोटे भाई बहन की ज़िम्मेदारी भी थी सर पर | उन्हें भी पढ़ाना लिखना था और उनके शादी व्याह भी करने थे | खुद भी आगे पढ़ना चाहते थे | साहित्य में पी एच डी करने का सपना देखा करते थे | चाचा की नौकरी का भी देखना था | और इस सबके लिए ज़रुरी था पहले कहीं अपनी नौकरी पक्की करना | पर दादी को इस हाल में छोड़कर कहीं जाएँ तो कैसे ?

पिताजी दादी को लेकर मुरादाबाद गए | वहाँ किसी अच्छे डाक्टर का पता लगाकर उसको मिले | डाक्टर ने कुछ दवाएँ और टानिक दी और साथ ही कहा कि दादी का मन खुश रखने की आवश्यकता है | धामपुर वापस आकर तीनों भाई बहन मिलकर दादी का मन बहलाने के प्रयास में लग गए | भाई बहनों के प्रयास और कुटुम्बियों का साथ पाकर कुछ वक़्त में दादी का दुःख कुछ कम हुआ और अब दादी ने घर के लोगों के बीच उठाना बैठना भी शुरू कर दिया था | यों दादी के पूरी तरह ठीक होने में क़रीब दो ढाई बरस का समय लग गया था | पर दादी जैसे जैसे ठीक होती जा रही थीं, पिताजी ने घर से बाहर आना जाना और लोगों से मिलना जुलना शुरू कर दिया था | दादाजी के प्रति सम्मान के कारण धामपुर के लोगों ने पिताजी को सर आँखों पर लिया और हर तरह से उनकी मदद करने में लग गए | पिताजी नौकरी करके परिवार पालना चाहते थे, पर दादी उन्हें पढ़ाना चाहती थीं ताकि कहीं अच्छी नौकरी मिल सके | पिताजी १८ के हो चले थे | दादी की पेंशन से और उनके पीहरवालों की मदद से रोटी कपड़े और खाने पीने की तो कोई चिंता थी ही नहीं | मुआवज़े में मिला कुछ रुपया भी पास था | सो उन्होंने ज़िद करके पिताजी को नगीना भेज दिया दाखले के लिए | पिताजी और चाचा दोनों का एडमीशन नगीना के इंटरमीडिएट स्कूल में हो गया |

उस समय धामपुर में इंटरमीडिएट स्कूल नहीं था | वहाँ के बच्चों को दसवीं के बाद नगीना का ही रुख करना पड़ता था | जबकि नगीना धामपुर के मुक़ाबले एक छोटा सा क़स्बा ही था, और धामपुर थी तहसील | साथ ही गुड़ और चीनी का बहुत बड़ा कारोबार होने के साथ साथ और भी बहुत सी चीज़ों के आढ़ती वहाँ हमेशा से ही थे | इसके अलावा एक रानी साहेबा की रियासत भी थी | पर इतना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र होते हुए भी शिक्षा के मामले में नगीना जैसे कस्बे से पिछड़ा हुआ ही था | सो, पिताजी ने बारहवीं और चाचा ने दसवीं की पढ़ाई के लिए नगीना कूच किया | साथ में धामपुर के कुछ और लड़के भी थे- रामचंदर महेसरी, सदाशिव जी, वैदजी चाचा जी, धरमकांत, अतरसिंह, रतनचंद वगैरा वगैरा…

सस्ते का ज़माना था | सरकारी स्कूल होने के कारण फीस तो कुछ थी नहीं | रही कापी किताबों की बात, तो कापियाँ कुछ मँहगी नहीं आती थीं | फिर पुरानी कापियाँ खरीद कर उनमें से कागज़ निकालकर नई कापियाँ बना ली जाया करती थीं | पुरानी ज़िल्दें हटाकर घर पर ही रंग बिरंगे कागज़ और गत्ता लेकर नई जिल्द चढ़ा ली जाती थी | तो स्कूल का कोई खर्चा नहीं था | हाँ, नगीना आने जाने का रेल का खर्चा ज़रूर था | घर की माली हालत कोई ख़ास अच्छी न होने की वजह से बस चार चार आने ही रोज़ मिला करते थे दोनों भाइयों को जेबखर्च के लिए | यानी पन्द्रह-सोलह रुपया महीना | उसमें से अगर रेल का टिकट भी ले लें तो खाएँ क्या ? लिहाज़ा दोनों भाइयों ने तय किया कि नगीना पैदल ही आया जाया करेंगे | कोई ज़्यादा दूर तो था नहीं- यही कोई पन्द्रह-सोलह किलोमीटर | सोचा, चलो इस बहाने कुछ सैर भी हो जाया करेगी | साथ के लड़के अमीर घरों से थे | वे रेल का किराया वहन कर सकते थे | चाचा और पिताजी के मधुर व्यवहार के कारण सभी दोनों के पक्के दोस्त बन गए थे | दोनों भाइयों को पैदल आते जाते देख सब दोस्तों ने योजना बनाई इन दोनों का रेल का खर्च उठाने की | पर पिताजी मना करते बोले “देखो भाई, इंसान को अपनी चादर के मुताबिक़ ही पैर पसारने चाहियें | हम दोनों को छोड़ो, अच्छा है इस बहाने कुछ सैर हो जाया करेगी और हम लोगों की सेहत ठीक रहेगी | आप लोग चलो अपने तरीक़े से |” पर कोई भी दोस्त इन दोनों को यों अकेला छोड़ने को राज़ी नहीं था | सभी जानते थे कि इन दोनों का अभी तक का वक़्त बड़े आराम से कटा है | स्कूल तक घोड़े पर बैठकर जाते थे | कहीं आने जाने पर एक आदमी साथ होता था | अब ज़रा वक़्त टेढ़ा हे तो क्या, हम सब साथ देंगे | यदि ये दोनों भाई पैदल आ जा सकते हैं तो बाक़ी लोग क्यों नहीं ? और इस तरह सभी ने इनके साथ पैदल आना जाना शुरू कर दिया | घने जंगल के रस्ते ये लोग नगीना आया जाया करते थे- क्योंकि ये रास्ता छोटा पड़ता था | सबकी ज़ेबों में भुने चने भरे होते थे | जब भी भूख लगती एक मुट्ठी चने निकल कर खा लेते और खेतों में काम करते किसान रहट का पानी पिला दिया करते थे | और इस तरह ये लड़के लग गए थे अपनी पढ़ाई पूरी करने में | पैसे वाले लड़कों के रेल के किराए के जो पैसे बचते थे उन्हें वे जोड़ने में लगे थे |

नगीना के स्कूल में आस पास के शहरों और क़स्बों से वहाँ रह रहे अंग्रेज़ों के भी बच्चे पढ़ने आया करते थे, और आदत के मुताबिक़ सभी शिक्षक उनकी जी हुजूरी में लगे रहते थे | इस बात पर कई बार स्थानीय लड़कों और अध्यापकों के बीच बहस भी छिड़ चुकी थी, पर हल कुछ नहीं निकला था | अंग्रेज़ों के लड़के भी स्थानीय लड़कों के साथ ऐसा सुलूक करते थे जैसे वे उनके ज़र ख़रीद गुलाम हों | वे तो अध्यापकों के साथ भी ऐसा ही व्यव्हार करते थे | लोकल लड़कों में अधिकाँश पैसेवाले घरों के “कागज़ों में से निकले हुए” लाड़ प्यार के पाले लाडले थे | इनके पिता अपने बिज़नेस के चक्कर में खुद अंग्रेज़ों की गुलामी से खुश थे, इसलिए घरवालों से शिक़ायत करने पर उनकी तरफ़ से यही सलाह मिलती थी “छोड़ो भूल जाओ, यह सब तो चलता ही रहता है | इन बातों से परेशान होने की आवश्यकता नहीं | वो नेहरु-गाँधी तो झगड़ ही रहे हैं अंग्रेज़ों से मुल्क को आज़ाद कराने के लिए, पर हम लोगों ने अगर कोई पंगा लिया तो हमारे काम-काज पर असर पड़ेगा |”

एक और परेशानी थी- इन लड़कों की हिंदी और उर्दू पर तो पकड़ अच्छी थी, कुछ संस्कृत में भी अच्छे थे, पर स्कूल में अंग्रेज़ी भाषा पढ़ाई का माध्यम होते हुए भी अंग्रेज़ी में हाथ तंग ही था | इसका एक कारण यह भी था कि घरों का माहौल टिपिकल बही-खातों वालों का था, कहाँ से सीख पाते ये लोग अंग्रेज़ी | बस जिस तिस से पूछकर कोर्स रिवाइज़ कर लिया करते थे | देखने भालने में भी ठेठ देहाती लगते थे- जैसे अभी खेतों से उठकर आ रहे हों | गर्मियाँ हैं तो एक जोड़ी कुरता पायजामा पहने और सर पर लाल गमछा बाँधे, कंधे पर घर का सिला थैला लटकाए, चप्पलें फटकारते पहुँच जाते थे स्कूल | सर्दियाँ होती थीं तो इसी कुर्ते पायजामे पर जवाहरकट डाल ली और सर पर गाँधी टोपी रख ली | कुर्ते के नीचे घर पर माँ की सिली गरम मिरजई पहन ली और दे दिया ठण्ड को धोखा! हर तरफ़ से परेशान ये लड़के तलाश में थे किसी ऐसे नेतृत्व की जो अच्छी तरह अंग्रेज़ी लिख-पढ़ और बोल सकता हो और बदन से भी मज़बूत हो- ताकि इन गोरी चमड़ी वाले लौंडों की अच्छी तरह धुनाई की जा सके |

इधर धामपुर कि इस टीम के सभी लड़के ऐसे घरों के थे जिनके पिता थे तो बिज़नेसमैन, पर आस पास के शहरों में अंग्रेज़ों के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध थे लिहाज़ा अपने बच्चों को अंग्रेज़ी की अच्छी तालीम बचपन से ही दिलाई थी | पिताजी से पता चला था कि खुद दादाजी भी अच्छी ख़ासी अंग्रेज़ी बोल लिया करते थे | कुर्ता-पायजामा ही सही, पर इन “धामपुरिये लौंडों” का पहनावा किसी नेता से कम नहीं था | तो धामपुर की ये टीम जब पहले पहल स्कूल पहुँची तो इनके व्यवहार और व्यक्तित्व के कारण सभी लड़कों से इनकी अच्छी ख़ासी दोस्ती हो गई | अंग्रेज़ों के लौंडों से भी इन्होंने दोस्ती कर तो ली थी पर दिलों में कुछ और ही पक रहा था |

स्कूल सही सलामत चल रहा था | स्वतंत्रता संग्राम के प्रति इन सभी के दिलों में काफ़ी जुड़ाव था | स्कूल में उन अँगरेज़ लड़कों को देखते तो मन में आता कि इनका खून ही कर दें, पर पढ़ाई के चक्कर में मन मारकर रह जाते थे | तभी एक अजीब हादसा हो गया | नगीना के पंडित नारायणदत्त शास्त्री का बेटा कृष्णदत्त अपने पिता जैसा ही विद्वान था संस्कृत का | जनेऊधारी था | पिता ने पूरे संस्कार किए थे विधि विधान पूर्वक | जब भी “नंबर एक” जाता तो जनेऊ कानों पर चढ़ा लेता | थे तो धामपुर के लड़के भी जनेऊधारी, पर अंग्रेज़ों की अधिक सोहबत में रहने के कारण घरवालों ने ऐसी कोई पाबन्दी नहीं लगाईं थी इन पर |

गोरे लड़कों को कृष्णदत्त को परेशान करने का मौक़ा मिल गया था | जब भी वह जनेऊ कान पर चढ़ाता, गोरे लड़के स्कूल के जमादार को पैसों का लालच देकर उसका जनेऊ उतरवा देते | जनेऊ उतरा गया, चलो कोई बात नहीं, झेल लेंगे, पर जमादार के हाथों उतरवाया गया- यह तो बर्दाश्त नहीं करेंगे | इसी बात को लेकर स्कूल में हंगामा हो गया | सारे स्कूल को ग्राउण्ड में इकठ्ठा किया गया | कृष्णदत्त के साथ हुए अत्याचार के विषय में सबको बताया गया | पिताजी की आवाज़ इतनी बुलंद थी कि बिना माइक के भी दूर तक जाती थी | वही सबके नेता बने हुए थे | कृष्णदत्त के साथ हुई बदसलूकी पर कोई चुप बैठना नहीं चाहता था | पिताजी की अगुआई में स्कूल के मैनेजमेंट और प्रिंसिपल साहब के साथ मीटिंग फिक्स की गई | लड़कों का एक डेलीगेशन लेकर पिताजी मीटिंग में पहुँचे | आलम यह था कि मैनेजमेंट भी अंग्रेज़ों से दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहता था | पर जब देखा कि इन लड़कों की बात नहीं मानी गई तो ये स्कूल को आग लगा देंगे, तब काफ़ी हील हुज्जत के बाद मैनेजमेंट ने आश्वासन दिया दोषी लड़कों के विरुद्ध कार्यवाही करने का | कार्यवाही हुई या नहीं इसका तो पता नहीं लग सका, पर हाँ, गोरे कुछ अरसे के लिए चुप होकर ज़रूर बैठ गए थे | एक और बात हुई- इन सारे “धामपुरिये” दोस्तों ने भी इस घटना के बाद “नंबर एक” जाते समय कान पर जनेऊ चढ़ाना शुरू कर दिया था, और गोरे लड़कों के सामने जान बूझकर कान पर जनेऊ चढ़ाकर जाते थे | इस घटना ने पिताजी को इस क्षेत्र की सारी युवा पीढ़ी का नेता बना दिया था |

आज़ादी का संघर्ष जैसे जैसे गति पकड़ता जा रहा था इन लोगों की भी गतिविधियाँ बढ़ती जा रही थीं | शुरू शुरू में इन लड़कों को आंदोलनकारियों के सन्देश गुपचुप तरीक़े से इधर उधर पहुँचाने का काम मिला करता था | पिताजी गाने बजाने के शौकीन थे | होते भी कैसे न! दादी जो खुद इतना अच्छा गाती थीं, इतना अच्छा हारमोनियम और ढोलक बजाती थीं | नाचती भी बहुत अच्छा थीं | तो यह सब तो पिताजी को अपनी माँ से विरासत में मिला था | बस इसी का फ़ायदा इस टीम ने उठाना शुरू कर दिया | कभी कहीं कोई सन्देश पहुँचाना होता तो पकड़े जाने के डर से ये लोग लिखकर कुछ न ले जाते | पिताजी आशु कवि थे, तुरंत कोई गीत रचते, धुन बनाते, साथियों को सुनाते, और सम्बंधित जगह पर जाकर गाना शुरू कर देते | आस पास के लोग तमाशा देखने घरों से बाहर निकलकर इकठ्ठा हो जाते | घोड़ों पर चढ़े सिपाही यही समझते कि “लौंडे हैं, लौंडीहारपना दिखा रहे हैं…” और बेंत हवा में घुमाकर इन लोगों को वहाँ से खदेड़ देते | पर तब तक ये लोग अपने मक़सद में क़ामयाब हो चुके होते थे | पिताजी के दोस्तों का जोड़ा हुआ ज़ेबखर्च इन्हीं कामों में खर्च हो रहा था | चाचा जी को ये सब अच्छा नहीं लगता था | वे डरते थे कि कभी पुलिस ने पकड़ लिया तो विधवा माँ और बहन का क्या होगा ? पर साथियों के कारण अधिक कुछ बोल न पाते थे |

सरोज जब भी इन बातों को सुनती थी तो सोचती थी की कितना मज़ा आता होगा पिताजी और उनके दोस्तों को इस सबमें | काश वह भी उस समय होती और सब कुछ देख पाती |

खैर, जैसे तैसे दो बरस गुज़र गए | बारहवीं का इम्तहान हो गया | इन लोगों का अब नगीना आना जाना बंद हो गया था | पर वहाँ जो ग्रुप बन चुका था आज़ादी के दीवानों का वह बढ़ता ही गया | स्कूल के प्रिंसिपल का डर तो अब था नहीं, सो अब ये लोग खुलकर सामने आ गए थे | नेहरू-गाँधी से मिलने की योजनाएँ बनाई जा रही थीं | और एक दिन किसी ज़रूरी काम का हवाला देकर क़रीब २० लड़के ट्रेन में सवार हो इलाहबाद जा पहुँचे | नेहरू जी उन दिनों वहाँ आए हुए थे | किसी तरह नेहरू जी से मिलने का जुगाड़ बैठाया गया | नेहरू जी इन परम उत्साही लड़कों से मिलकर बहुत खुश हुए और उन्होंने इन्हें अपने क्षेत्र के स्तर पर जन-आंदोलन छेड़ने की सलाह दी | नेहरू जी से मिलने के बाद और भी अधिक जोश में भर गए थे | उधर शहर में जब पुलिस वालों को पता चला कि इतने सारे लड़के एक साथ शहर से बाहर गए हैं तो उनके कान खड़े हो गए | प्लेटफार्म पर पुलिस तैनात कर दी गई | जैसे ही ये लोग वापस पहुँचे, पुलिस ने पूरे जत्थे को धर दबोचा और एक साथ शहर से गायब होने का कारण पूछना शुरू कर दिया | ये लोग भी कुछ कम नहीं थे | संगम में स्नान करने के लिए प्रयाग जाने का बहाना बनाकर पुलिस से पीछा छुड़ा लिया |

इस बीच रिज़ल्ट्स भी आ चुके थे | चाचा को छोड़कर बाक़ी सभी पास हो चुके थे | अब सबने योजना बनाई कि पहले कुछ काम धाम शुरू किया जाए, फिर उसकी आड़ में जो चाहें कर सकते हैं | उसी योजना के तहत जो दुकानदारों के लड़के थे उन्होंने अपनी अपनी दुकानें सम्हाल लीं | बैद्य जी ने अपने पिताजी से आयुर्वेद सीखने के साथ साथ बाक़ायदा कोर्स भी किया हुआ था- सो उन्होंने वहीँ अपने पिताजी के औषधालय पर बैठना शुरू कर दिया | वहाँ आने वाले मरीज़ों को आंदोलन से जोड़ने में मदद मिलती थी | पिताजी भी किसी नौकरी की तलाश में लग गए और म्युनिसिपालिटी के दफ़्तर में टाइपिस्ट की नौकरी उन्हें मिल गई थी | हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों की टाइप उन्हें आती थी और साथ में सदाशिव जी के पिताजी की सिफारिश भी थी | ये अकेले टाइपिस्ट थे और इनकी तनखाह थी ५० रुपए प्रतिमाह, जो उस समय के लिहाज़ से काफ़ी थी | चाचा जी का एक बार फिर नगीना के स्कूल में एडमीशन करवा दिया था | पिताजी दस रुपए हर महीने चाचा को रेल के किराए के देते थे, चार रुपए अपने ज़ेबखर्च के लिए निकाल कर रखते थे, और बाक़ी के ३६ रुपए माँ के हाथों में थमा देते थे | इन ३६ रुपयों की वजह से घर की आर्थिक स्थिति में भी कुछ सुधार हुआ था | और इसे घर-भर का सौभाग्य कहें या आने वाली विपत्ति से पहले की तेज़ दीख पड़ती रौशनी, कि पिताजी के काम से खुश होकर एक ही छमाही के बाद उनकी तनखाह ५० से बढ़ाकर सीधे ८० रुपए कर दी गई थी |

पिताजी दफ़्तर में काम करते थे और बाद में अपने दोस्तों की मंडली में जा बैठते, जहाँ हर समय आज़ादी की लड़ाई पर ही चर्चा होती थी | दादी जानती थीं कि दादाजी के सामने ही पिताजी का नाम आंदोलनकारियों में आ चुका था, और दादाजी के हार्टफेल का कारण भी वे यही मानती थीं | कानपुर भी इसी डर से छोड़ना पड़ा था कि कहीं अँगरेज़ पिताजी को “क्रन्तिकारी” समझकर जेल में न ठूंस दें- फिर ये विधवा माँ कहाँ जाती ? वर्ना तो वहाँ के बड़े महंत जी भी इतने खुश थे पिताजी से कि अपनी गद्दी उन्हें सौंपना चाहते थे | सब कुछ को ठोकर मारकर ये लोग धामपुर लौट आए थे | इसलिए दादी हर वक़्त डरी रहती थीं कि कहीं अब फिर से बेटा ऐसे ही किसी चक्कर में न पड़ जाए | दादी का मन रखने के लिए उन्हें यही बताया गया था कि पिताजी जलतरंग और सितार सीखने जाते हैं उस्तादजी के पास | एक तरह से यह सच भी था | पिताजी के उस्ताद जी रामपुर से कभी कभी आते थे, और जितने दिन वहाँ रहते थे उतने दिन पिताजी एक एक पल उनकी सेवा में बिताना चाहते थे | उस्ताद जी को देने के लिए माँ से कभी कभी कुछ रुपए भी मांग लिया करते थे | पिताजी ने जिस लगन से उस्ताद जी की सेवा की, उसी लगन से उस्ताद जी ने उन्हें सिखाया भी | यही नहीं, उस्ताद जी ने अपना सितार और मिरज का तानपूरा भी पिताजी को आशीर्वाद स्वरूप भेंट कर दिया था |

दादी को न जाने कहाँ से गलतफहमी हो गई थी कि जो लड़के संगीत का शौक़ रखते हैं वे गलत सलत जगहों पर जाना शुरू कर देते हैं | इसीलिए दादी के भाई ने जो नौकरानी भेजी थी उसकी ड्यूटी लगा दी गई थी कि जब भी पिताजी घर से बाहर जाएँ वह उनका पीछा करे और वापस आकर सब कुछ बताए | वह जब भी वापस आती बस यही बताती कि दफ़्तर के बाद बड़े भैया अपने एक दोस्त की दुकान पर बैठे थे, कभी सदाशिव की दुकान, कभी अतरसिंह के पिता के अस्पताल पर, कभी वैद्य जी के औषधालय में तो कभी रतनचंद जैन के दफ़्तर में बैठे होते थे | दादी राहत की सांस लेती थीं |

एक दिन सुबह सुबह दहलीज़ का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया | बुआ ने दरवाज़ा खोला | बाहर एक पुलिस वाला खड़ा था और पिताजी के बारे में पूछ रहा था | डरती डरती बुआ ने भीतर आकर पिताजी को पुलिसवाले के बारे में बताया | चाचा नगीना गए हुए थे | पिताजी बाहर गए और पुलिसवाले से आने का कारण पूछा तो उसने जवाब दिया “पंडित जी, आपको मेरे साथ थाने चलना होगा, कुछ ज़रूरी पूछताछ करनी है |”

“जी अभी हाज़िर हुआ, इजाज़त हो तो ज़रा कपड़े पहन आऊँ…” पिताजी ने जवाब दिया और भीतर आकर बुआ से धीरे से कहा कि उनके जाने के फ़ौरन बाद वे सदाशिव के यहाँ जाकर बताएँ सारा क़िस्सा | कुर्ता-धोती पहन और सर पर गाँधी टोपी लगा पिताजी बाहर आए और पुलिसवाले के साथ हो लिए | उनके जाते ही दादी ने शोर मचाना शुरू कर दिया “अरे कोई बचाओ! न जाने क्यों गंगा को वे लोग थाने ले गए हैं! अरे ज़रूर कुछ किया होगा इसने… बाप समझाता समझाता मर गया कि ये सारे झगड़े-टंटे छोड़ दो, पर इसने एक न सुनी… अरी माँ री… अब हम कहाँ जाएँ…?” बुआ ने जैसे तैसे दादी को पानी पिलाकर धीरज बँधाया और उन्हें कुटुम्बियों की देख रेख में छोड़ सदाशिवजी के घर की तरफ़ भागी |

पिताजी अभी थाने पहुँचे ही थे कि उनके साथियों का विशाल हुजूम वहाँ इकठ्ठा हो गया | भीड़ ने पिताजी को थाने लाने का कारण जानना चाह तो बताया गया कि पिताजी “आतंकवादी गतिविधियों” में शामिल थे और दफ़्तर का टाइपराइटर भी इस काम के लिए “यूज़” कर रहे थे | पिताजी और उनके साथियों ने सुबूत जानना चाहा तो एक अँगरेज़ पुलिसवाले ने हुक्म दिया “इन पर डंडे बरसाओ, सब सुबूत मिल जाएगा…” और न चाहते हुए भी उस सिपाही ने पिताजी को डंडे से पीटना शुरू कर दिया | फिर क्या था, बाहर खड़े लोग गुस्से में आग बबूला हो गए और थाने के भीतर घुसकर ऐसी तोड़ फोड़ मचाई कि थाने के अधिकारियों को बिजनौर खबर भेजनी पड़ी अतिरिक्त सहायता के लिए | शाम तक थाने में उत्पात मचता रहा | बिजनौर से अतिरिक्त सहायता भी पहुँच गई “दंगे” पर क़ाबू पाने के लिए | शाम को उन लोगों को पिताजी को छोड़ना ही पड़ा- इस चेतावनी के साथ कि भविष्य में अगर कभी कुछ ऐसा शक़ भी हुआ तो पिताजी और उनके दोस्तों को बख्शा नहीं जाएगा |

पिताजी घर पहुँचे तो घर में जैसे मातम छाया हुआ था | चाचा भी नगीना से आकर सर हाथों में थामे बैठे थे | घर पहुँचते ही सबसे पहले तो दादी ने पिताजी पर ताबड़तोड़ थप्पड़ों की बरसात शुरू कर दी | बाद में जब पुलिस की लाठियों का पता चला तो अतरसिंह के पिताजी को बुलाकर दवा-दारू का बंदोबस्त किया गया | शहर और आस पास के इलाकों में ये खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई कि पंडित गंगाप्रसाद को पुलिस गिरफ्तार करके ले गई थी आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने की वजह से जहाँ उन पर खूब डंडे बरसाए गए, पर उन्होंने “उफ़” तक नहीं की और वैसे ही सीना ताने खड़े रहे | पिताजी अब सबके “हीरो” बन चुके थे और पूरे इलाके के लोग अब और भी अधिक जी जान से पिताजी और उनके दोस्तों के साथ इस संघर्ष को क्षेत्रीय स्तर पर आगे बढ़ाने में जी जान से जुट गए थे | दादी और चाचा पिताजी को बहुत समझाते थे, पर पिताजी किसी की सुनने को राज़ी ही नहीं थे | चाचा को मजबूरन पिताजी का साथ देना पड़ता था- सारे दोस्त जो उनके साथ थे |

बाक़ी सब तो ठीक था, पर इस घटना ने दादी और बुआ को बुरी तरह हिलाकर रख दिया था | अब दादी को घरवालों ने सलाह दी “गंगा की शादी कर दो | पैरों में बेड़ियाँ डल जाएँगी तो खुद-ब-खुद घर में बैठना शुरू कर देगा |” पर उनके सामने बात आई तो साफ बोल दिया “माँ तू तो जानती ही है अभी मेरे दिमाग में सूरज और कावेरी के विवाह की चिंता है | इन दोनों के घर बस जाएँ, सूरज की नौकरी लग जाए, फिर जो कहेगी मान लूँगा…”

परेशान माँ ने अपने भाई की ड्यूटी लगा दी दोनों लड़कों के लिए अच्छी कुलीन लड़कियाँ और बेटी के लिए कोई अच्छा घर बार देखने की | पिताजी के ओंकार मामा जुट गए पूरे ज़ोर शोर से | दादी ने साफ बोल दिया था “न तो हमारी औक़ात है कावेरी की शादी में दहेज़ देने की और न ही हम किसी बेटी वाले से दहेज़ माँगते हैं | हाँ, गंगा का मन ज़रा बेचैन रहता है, तभी बाहर डोलता फिरता है | उसके लिए भाई लड़की ऐसी ढूँढना जिसकी सुंदरता से गंगा के पैरों में अपने आप ही बेड़ियाँ पड़ जाएँ, और वह ये “सुराज-वुराज” का गाना गाना बंद कर दे…”

वक़्त की बात, गंगा के लिए जो भी रिश्ते आए, दादी को उनमें से कोई भी लड़की पसंद नहीं आई | हाँ, चाचा के लिए जो गजरौलेवाले वैद्यजी की लड़की “धनिया” का रिश्ता आया था, दादी ने उसके लिए हाँ कर दी | लड़की हालाँकि पढ़ी लिखी नहीं थी और न ही सुन्दर थी, पर अच्छे संभ्रांत परिवार की लड़की थी, इसलिए हाँ कर दी गई | बुआ के लिए भी नजीबाबाद के एक खाते पीते घर का रिश्ता आया था | लड़का रामप्रसाद दो भाई और एक बहन थे | रामप्रसाद सबसे छोटे थे | काफ़ी ज़मीन ज़ायदाद थी नजीबाबाद में इन लोगों की | लड़का खुद एक स्कूल में अंग्रेज़ी का अध्यापक था | बड़ी बहन की शादी मेरठ हो चुकी थी | बड़े भाई कोई बड़े सरकारी अफ़सर थे और परिवार सहित लखनऊ रहते थे | बस ये लड़का ही यहाँ रहता था | माता पिता पहले ही स्वर्ग सिधार चुके थे | इस रिश्ते के लिए भी हाँ कर दी गई | पर दादी के सामने समस्या थी कि बड़ा बेटा अभी कुंआरा बैठा है, ऐसे में छोटे दोनों बच्चों की शादी करना क्या ठीक रहेगा ? फिर सूरज की तो अभी कहीं नौकरी भी नहीं थी | बारहवीं में हर साल फेल हो जाता था | शादी के बाद बहू की ज़िम्मेदारी निभा पाएगा ? तब घरवालों ने समझाया “जिनके लिए रिश्ते मिल रहे हैं पहले उनकी तो कर दो | रही सूरज की नौकरी की बात, तो गंगा लगा हुआ तो है कोशिश में, कहीं ना कहीं काम हो ही जाएगा | और रहा गंगा, तो वो तो वैसे ही इतना ख़ूबसूरत है कि इसके लिए ख़ूबसूरत लड़की मिलना कोई मुश्किल नहीं होगा…” पिताजी ने भी सबकी हाँ में हाँ मिलाई और ओंकार मामा की मदद से चाचा और बुआ की शादियाँ कर दी गईं |

अब घर में एक बहू आ चुकी थी और बेटी घर से विदा हो चुकी थी | दादी को पिताजी की चिंता फिर भी लगी ही रहती थी | तभी एक दिन दरवाज़े पर दस्तक हुई | बड़ा कुटुम्ब होने के कारण दरवाज़ा हर वक़्त खुला ही रहता था, रात को ही पिताजी के आने के बंद होता था, क्योंकि वही सबसे बाद में आते थे | दस्तक सुन चाचा देखने के लिए दरवाज़े पर पहुँचे तो देखा वहाँ कोई वृद्ध सज्जन खड़े थे और साथ में यही कोई छह सात बरस का छोटा सा बच्चा भी था | पूछने पर उन्होंने बताया कि वैद रामबाबू ने भेजा है उन्हें | चाचा उन्हें बैठक में ले आए | पीछे पीछे वैदजी चाचा भी आ पहुँचे थे | उनसे पता चला कि चांदपुर-नूरपुर के पास हरयाने में इन पण्डित हरगोविंद जी का जड़ी बूटियों का छोटा सा कारोबार है | वैद जी को दवाओं में डालने के लिए जड़ी बूटियाँ यही सप्लाई करते हैं | साथ में इनका बेटा था महेश, जो अभी सात बरस का ही था | इनकी एक बेटी है- निर्मला | वैद जी ने खुद अपनी आँखों से देखा है उस लड़की को | बड़े पण्डित जी के लिए जैसी लड़की चाहिए वैसी ही है वो… ऎसी खूबसूरत कि हाथ लगाओ तो मैली हो जाए… सुशील भी है… हाँ पण्डित जी के पास लेने देने के लिए कुछ नहीं है…

पण्डित जी और वैद जी को बैठक में छोड़ चाचा भीतर जाकर दादी को लिवा लाए | दादी ने बात की पण्डित हरगोविंद जी से | वैद जी से पूछा “तुमने देखी है लड़की ? सच बताना हमारे गंगा के लायक है या नहीं…”

“अरे मामी जी, मेरी मानो तो आँख मूंद कर शादी कर दो | पण्डित जी (पिताजी को सब प्यार से या तो पण्डित जी, बड़े पंडितजी या फिर केवल गंगा बुलाया करते थे) देखेंगे लड़की को तो देखते ही होश गँवा बैठेंगे…” वैद जी ने जवाब दिया, और वैद जी की बात सुन दादी ने फिर कुछ और नहीं पूछा और रिश्ते के लिए हाँ कर दी | कुछ दिनों बाद पिताजी के पैरों में भी बेड़ियाँ डाल दी गईं | लड़की वास्तव में जैसा सुना था वैसी ही थी- ऎसी ख़ूबसूरत कि ख़ूबसूरती को भी खुद पे रश्क आ जाए | पिताजी और माँ की जोड़ी को जिसने देखा, देखता ही रह गया | हर किसी कि जुबान पर यही चर्चा थी “भई मान गए थानेदारनी को, बड़े पण्डित जी के लिए ऐसी लड़की ढूँढ कर लाई हैं कि लगता है जैसे साक्षात् रति-कामदेव की जोड़ी है…”

अब सोचती है सरोज शायद लोगों की नज़र ही लग गई उस जोड़ी को, तभी तो पिताजी के साथ साथ उसे भी वो सब झेलना पड़ा…

खैर, पिताजी की शादी तो हो गई, पर उनका दोस्तों के बीच उठना बैठना फिर भी नहीं रुका | बताते हैं की उन्होंने पहले दिन ही माँ से कह दिया था कि जब तक देश आज़ाद नहीं हो जाता तब तक उनसे किसी तरह की उम्मीद न रखें | ऐसे में माँ के पास ससुराल वालों की सेवा में ज़िंदगी खपा देने के अलावा और क्या रास्ता बचा था ? किससे क्या कहतीं ? और कौन सुनता वहाँ उनकी ? वो तो बेचारी थीं भी एक छोटे से गाँव की अनपढ़ औरत | दादी और घरवाले सोचते थे कि चाँद जैसी सुन्दर बहू आई है, अब तो गंगा के पाँव घर में टिकेंगे ही टिकेंगे | पर जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो घर भर की झुँझलाहट माँ पर ही निकालनी शुरू हो गई |

पिताजी के आंदोलन, सत्याग्रह बढ़ते ही जा रहे थे | उनके कई साथी तो दो एक बार जेल की हवा भी खा आए थे | पर पिताजी को अभी तक सबने बचाया हुआ था– सबका मानना था कि अगर बड़े पंडत जी भी जेल चले गए तो बाकियों का मार्गदर्शन कौन करेगा…

इसी अफरा तफरी के माहौल में सरोज का जन्म हुआ | घरवालों ने सोचा शायद अब गंगा को कुछ अक्ल आ जाए | पर गंगा को अक्ल न आनी थी न आई | सरोज के नामकरण के दिन ही पुलिस पिताजी को गिरफ़्तार करके ले गई और घरवालों का सारा दुःख गुस्से के रूप में सरोज और उसकी माँ पर निकला | माँ को “डायन, करमजली” तो सरोज को “अभागन” क़रार दे दिया गया |

सोचते सोचते सरोज थक चुकी थी | सोच रही थी “अगर घरवाले कहते थे कि मैं “अभागी” और मेरी माँ “करमजली” थी तो गलत क्या कहते थे ? अगर मेरी माँ के भाग अच्छे होते तो क्या पिताजी का पूरा साथ और ससुरालवालों से सम्मान न मिलता उन्हें ? और अगर मैं खुद अच्छे भाग लेकर पैदा हुई होती तो क्या मेरे नामकरण के दिन ही पुलिस पिताजी को गिरफ़्तार करके जेल में डाल देती ? सच में, हम दोनों ही माँ बेटी “भाग्यहीन” थीं…” सोचते सोचते सरोज फिर अतीत के क़िस्सों में पहुँच गई | पिताजी पूरा एक महीना जेल में रहे | बाद में रानी साहिबा की ज़मानत पर उन्हें रिहा कर दिया गया- उसी चिर-परिचित चेतावनी के साथ कि अगर फिर कभी ऎसी “आतंकवादी” गतिविधियों में लिप्त पाए गए तो हाथ पाँव तोड़ कर रख दिए जाएँगे |

जेल से बाहर आने पर सबको लगा था कि ज़िंदगी फिर से एक बार ढर्रे पर चल निकलेगी | पर पिताजी के काम बढ़ते ही चले जा रहे थे | पिताजी का आए दिन जेल जाना या फिर पुलिस से छिपना छिपाना, घर में फैली मनहूसियत, रात दिन के झगड़े, माँ के साथ दादी और चाची का दुर्व्यवहार- यही सब देखते देखते सरोज बड़ी हो रही थी | सबका मानना था कि पिताजी जो कुछ भी कर रहे थे उस सबका कारन माँ ही थीं, अगर वे चाहतीं तो पिताजी को घर में बांधकर बैठा सकती थीं | पर कोई इतना समझने को तैयार नहीं था कि जिस आदमी को २१-२२ बरस की उम्र तक उसके घरवाले जंज़ीरों में जकड़ कर नहीं रख सके उसे कल की आई औरत भला क्या सम्हाल सकती थी ? इस बीच सरोज का एक भाई भी पैदा हुआ था | पर पैदा होते ही उसका पेट फूला हुआ था | उसी बीमारी में वो चल बसा | वैदजी चाचा जी से पता चला था कि उसका जिगर ख़राब था | बेटा पैदा हिने पर माँ के मन में भी एक आशा की एक किरण फूटी थी | माँ को भी अपने जीवन में किसी का सहारा दिखाई दिया था | पर भगवान ने वो भी छीन लिया था | पिताजी की भी नौकरी तो नहीं गई थी रानी साहिबा के दखल के कारण, पर जितने दिन वे जेल में रहते थे उतने दिनों की तनखाह उन्हें नहीं मिलती थी |

उधर पिताजी के आंदोलनों में तेज़ी आई और इधर बेटा खोने के दुःख और घरवालों के हर समय के क्लेश ने माँ को बुरी तरह तोड़ कर रख दिया था | माँ को हल्का हल्का बुखार रहने लगा था | भाई के मरने के बाद पिताजी जब जेल से बापस आए तो माँ का हाल देखकर उन्हें वचन दिया कि जब तक वो ठीक नहीं हो जाएँगी पिताजी कहीं नहीं जाएँगे | पाँच महीने ठीक से अपनी नौकरी करते रहे | घरवालों को भी लगा कि शायद जेल की ठोकरों ने गंगा को रस्ते पर ला दिया है | पर वे सब गलत थे | पिताजी और उनके सैंकड़ों की तादाद में साथी चोरी छिपे अपने कामों में लगे हुए थे | तभी एक दिन… गुप्ता जी की प्रेस में कुछ पैम्फलेट्स छप रहे थे | ये सरे कम रात को ही किए जाते थे कि पुलिस को भनक न लग जाए | अगले दिन एक जनसभा में उन पर्चों को बाँटा जाना था | किसी मुखबिर ने पुलिस को खबर कर दी और प्रेस में बैठे सारे आदमी पकड़े गए | पिताजी तब वहाँ नहीं थे | पर पुलिसवालों को अच्छी तरह पता था कि इस सबके पीछे “मास्टरमाइंड” वाही है म्यूनिसीपालिटी का टाइपिस्ट गंगाप्रसाद | लिहाज़ा सुबह सुबह पिताजी को भी घर से गिरफ़्तार करके ले जाया गया | चाचा इन सब कामों से अलग ही रहते थे | शायद ये भी भले के लिए ही था | वे कम से कम वकीलों के पास भाग दौड़ और थाने के चक्कर तो लगा लिया करते थे | कुछ ठीक से याद नहीं सरोज को, पर शायद दस पन्द्रह दिन पिताजी जेल में रहे थे | उधर माँ की हालत दिन पर दिन बिगड़ती जा रही थी | चाचा ही उन्हें कभी कभी डाक्टर के पास ले जाते थे | पर घर की औरतों का हाल वही था | इस हाल में भी गिरती पड़ती माँ सबके लिए खाना पकाती थी | चक्की पर आटा पीसती थी | चाचा ने कहा भी कई बार बुआ और चाची से कि भाभी से अगर ऐसे ही काम कराते रहे तो तो वो अधिक दिन नहीं जिएगी | पर सबने इस कान सुनी उस कान निकाल दी |

सरोज शायद तीन चार बरस की रही होगी | आजकल पिताजी नहीं थे तो वो माँ के पास ही ऊपर वाली तिदरी में सोती थी | वरना तो पिताजी के पास सोए बिना उसे नींद नहीं आती थी | लाडली जो थी पिताजी कि | सब कहते थे कि सरोज बिलकुल अपने माँ बाप पर गई है | माँ के जैसे नैन नक्श लिए थे तो माँ बाप दोनों के जैसा गोरा गोरा लाल लाल रंग | वो तो हालत ने माँ के रूप रंग पर डाका डाल दिया था, वरना कहते हैं जब ब्याह कर आई थीं तो किसी अंग्रेज़ी मेम से कम नहीं लगती थीं |

माँ रात भर दर्द से कराहती रहती थीं | और एक रात जब सरोज माँ के पास जाकर लेटी तो देखा उनका माता आग जैसा तप रहा था | बच्ची थी, कुछ समझ नहीं सकी और पिताजी को याद करती मुँह में अँगूठा दबाकर सो गई | उसकी दो आदतें बहुत गंदी थीं, एक तो सोते समय मुँह में अँगूठा दबाना और दूसरे रात को बिस्तर गीला करना | जब बिस्तर गीला करती थी तो माँ उसे जगाकर उसकी कच्छी बदलती थीं और प्लास्टिक पर बिछी चादर बदल दिया करती थीं | सरोज ने आज भी बिस्तर गीला किया था, पर आज माँ ने न उसे जगाया था और न ही उसकी कच्छी और चादर बदली थी | सरोज चैन की नींद सोती रही थी | कि अचानक नीचे से रोने की आवाज़ें सुनाई दीं और घबराकर सरोज की आँख खुल गई | उसने महसूस किया कि उसके कपड़ों में से पेशाब की बदबू आ रही थी | चारपाई पर देखा तो माँ भी वहाँ नहीं थीं | सरोज आँखें मलती और रोते रोते माँ को पुकारती सीढ़ियाँ उतर कर नीचे पहुँची | तिदरी में क़दम रखा तो देखा नीचे ज़मीन पर कोई चादर टेल ढका लेटा था और दादी, चाची और बुआ के साथ साथ खानदान की दूसरी औरतें भी वहीं जामें पर बैठीं ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं | सरोज के वहाँ पहुँचते ही बुआ ने सरोज को गोद में उठा लिया और सीने से चिपटाती रोती रोती बोलीं “अरी लल्ली, अब कहाँ से आवेगी तेरी माँ… वो तो चली गई हम सबको छोड़के… अरी बदकिस्मत, कम से कम मेरे भाई के आने का तो इंतज़ार करती… अरे अब हम क्या मुँह दिखावेंगे गंगा को… इस बच्ची को कौन पालेगा अब… ये तूने क्या किया भगवान…”

माँ गुज़र चुकी थीं | माँ तो उसके पास ऊपर वाली तिदरी में सोई थीं, फिर नीचे कैसे पहुँच गईं ? सरोज कुछ नहीं समझ पा रही थी | पर सच्चाई यही थी कि माँ अब नहीं रही थीं | उधर पिताजी पर केस नहीं बन सका था और उन्हें छोड़ दिया गया था | माँ की अर्थी उठने ही वाली थी कि पिताजी आ पहुँचे थे | सरोज दौड़कर पिताजी के पास पहुँच गई और पिताजी ने उसे गोद में लेकर कसकर सीने से लगा लिया | उसके कपड़ों में से पेशाब की बदबू अभी भी आ रही थी | किसी ने उसके कपड़े नहीं बदले थे | न ही किसी ने उसे कुछ नाश्ता पानी कराया था | सबके सब बस माँ के अंतिम संस्कार की ही तैयारी में लगे थे, और चाची और बुआ को शायद ये चिंता सता रही थी कि सरोज की देखभाल अब कहीं उन्हें ही न करनी पड़ जाए…

क्रमशः…….

थानेदार कन्हैयालाल

दो – थानेदार कन्हैयालाल

पलंग पर सोने के लिए लेट तो गई सरोज, पर आँखों से नींद गायब थी | सोच रही थी कि कितना कितना सुना था थानेदार कन्हैयालाल जी यानी दादा जी के बारे में बचपन में दादी, पिताजी और चाचा से | ऐसे थानेदार कन्हैयालाल जी की पोतियाँ थीं सरोज और नीलम | थानेदार कन्हैयालाल… फोटो देखा था उनका | मैडल देखे थे उनके, जो उन्हें अँगरेज़ सरकार ने उनकी बहादुरी के कारनामों से खुश होकर दिए थे | दादी जब भी परेशान या उदास होती तो दादा जी की फोटो और मैडल निकालकर देख लिया करती | धामपुर का वो घर जिसमें ये लोग रहा करते थे उन दिनों और भीतर इनके कुटुम्बी रहा करते थे- सारी की सारी इन्हीं की ज़ायदाद थी | दादा जी नौकरी के सिलसिले में ज़्यादातर धामपुर से बहार रहे- ख़ासतौर से गोरखपुर और कानपुर | ये सारी हवेली कुटुम्बियों को दे रखी थी कि जब यहाँ रहने आएँगे तब वापस ले लेंगे, तब तक ये लोग बरत सकते हैं | पर दादा जी के मरने के बाद जब पिताजी परिवार सहित धामपुर वापस आए तो कुटुंब वालों ने बस ये बाहर वाला पोर्शन ही दिया रहने के लिए | पिताजी तो आना ही नहीं चाहते थे वापस, पर दादी की ज़िद के चलते उन्हें आना पड़ा | दादी सुनाया करती थीं कि “नौकरी के चक्कर में भले ही आपके दादा जी बाहर रहे, पर उनकी दिली ख्वाहिश थी कि रिटायरमेंट के बाद तो अपने कुटुम्बियों के पास ही चलकर रहेंगे | और कुटुम्बी भी कोई दूर के थोड़े थे- दादा जी के सगे भाई का परिवार ही तो सारा | अब अगर नौकरी पर ही उनकी मृत्यु हो गई तो क्या उनकी वह आखरी ख्वाहिश भी पूरी न की जाती ? फिर कुछ ऐसा भी हो गया था कि कानपुर से वापस आना ज़रुरी सा हो गया था |”
“वो ऐसा क्या था ?” पूछने पर दादी चुप लगा जाती थीं |
दादाजी के एक भाई और थे | ये मकान दादाजी ने अपने पैसों से बनवाया था- गाँव के अपने हिस्से के मकान को बेचकर और कुछ अपनी तनखाह में से पैसा लगाकर | दादी भी खाते पीते घर की थीं, तो कुछ उनके मायके वालों ने भी पैसा लगाया था | पर दादाजी के भाई की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी | अनाप शनाप खर्चों के चक्कर में गाँव का मकान पहले ही बेचकर खा चुके थे | दादाजी अभी नौकरी में ही थे कि गाँव में फैले प्लेग से दादाजी के भाई और भाभी दोनों गुज़र गए थे | बचे थे तो उनके दो बेटे- विशम्भर ताऊ जी और रामेश्वर ताऊ जी, यानी पिताजी के बड़े भाई | दादाजी ने उन दोनों को गाँव से बुलाकर धामपुर वाले मकान में रख लिया था- इस शर्त पर कि कुछ काम काज करके वे लोग अपना अलग मकान बनाकर रहेंगे और दादाजी के लौटने पर ये मकान उन्हें वापस कर देंगे |
पिताजी थे दो भाई और एक बहन, और ताऊ जी थे दो भाई | रामेश्वर ताऊ जी के तो एक ही बेटे थे- कैलाश | विशम्भर ताऊ जी के श्यामा, लक्ष्मी और रामनारायण- तीन तीन बेटे थे | काम धाम उनसे कुछ करते न बनता था इसलिए आर्थिक स्थिति पहले जैसी ही थी | पान की छोटी सी दुकान में उन दिनों कहाँ इतने बड़े परिवार की गुज़र हो सकती थी ? उधर पिताजी उनकी अपेक्षा बहुत तो नहीं, पर फिर भी काफ़ी अच्छी स्थिति में थे | एक तो दादाजी की पेंशन दादी को मिल रही थी, दूसरे ड्यूटी पर ही दादा जी का स्वर्गवास हो जाने के कारण कुछ मुआवज़ा भी मिला था | इसीलिए जब पिताजी वापस आए तो उन लोगों की स्थिति देखकर पिताजी को बहुत दुःख हुआ और हवेली का भीतर का हिस्सा उन लोगों को ही दे दिया | बाद में सामने वाला कमरा भी माँग लिया था ताऊ जी ने कैलाश के लिए | खैर… ये एक अलग किस्सा है…
बात चल रही थी दादाजी की | दादाजी- यानी बड़े थानेदार कन्हैयालाल जी | अंग्रेज़ों का ज़माना था | दादाजी पुलिस की नौकरी में थे | अंग्रेज़ हुकूमत के दौरान पुलिस की नौकरी बड़ी कठिन हुआ करती थी | और दादाजी के समय में तो आज़ादी की लड़ाई भी चल रही थी | सो इन पुलिसवालों को भारतीय क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों के दमन के लिए भी तैनात किया जाता था | पर कुछ तो दादाजी की किस्मत अच्छी थी और कुछ उस समय पूरब के इलाके में अंग्रेज़ों के बड़े हुक्मरानों के बीच दादाजी का काफ़ी सम्मान था, इसलिए शायद दादाजी को कभी स्वतन्त्रता संग्राम के नायकों का दमन करने के लिए नहीं भेजा गया था | हाँ, दादी बताती थीं कि दादाजी को डर हमेशा लगा रहता था कि न जाने कब ऐसे आर्डर आ जाएँ और उन्हें जेल में इन लोगों से भी दो-चार होना पड़े | और बकौल दादीजी, शायद इसी डर के चलते उनके दिल पर गहरा असर पड़ता जा रहा था, जिसका परिणाम हुआ हार्टफेल के कारण उनकी मृत्यु…
जो भी हो, दादाजी के शौर्य की गाथाएँ और दादी की ममता के किस्से पिताजी, चाचा और खुद दादी से सुन सुनकर सरोज के दिल में दादा दादी के लिए असीम श्रद्धा का भाव भर गया था | दादाजी की फोटो देखी थी सरोज ने कई बार- ब्लैक और व्हाइट फोटो में भी पता लगता था कि बिल्कुल चाचा जी के जैसा काला चमकीला रंग था और नैन नक्श कद काठी सब कुछ भी बिल्कुल वैसा ही था- लंबा चौड़ा | फ़र्क इतना ही था कि एक तो शायद दादाजी की आँखें भूरी नहीं थीं- जबकि चाचा की आँखें भूरी थीं, दूसरे दादाजी की बड़ी बड़ी रौबदार मूँछें थीं, जबकि चाचा थे मुछमुंडे | सरोज जब भी चाचा को देखती थी तो उसे डर लगता था कि न जाने कब गुस्सा दिखाने लग जाएँ, ऐसा ही था उनका व्यक्तित्व | उधर पिताजी चाचा के ठीक उलट थे | पिताजी का रंग था गोरा गोरा, लाल लाल सेब के जैसे गाल, भूरी बिल्ली जैसी आँखें और कद चचा से कुछ छोटा | कसरती बदन था | देखने में कामदेव का अवतार जान पड़ते थे | चेहरे पर सदा सबके लिए स्नेह झलकता रहता था और मंद मंद मुस्कराहट हमेशा उनके होठों पर खेलती रहती थी- भले ही कितने भी तनाव में क्यों न हों | गुस्सा करना तो शायद उन्होंने सीखा ही नहीं था | असल में दादी थीं बिल्कुल गोरी चिट्टी भूरी आँखों वाली और छोटे कद की एक बेहद खूबसूरत गुड़िया सी दिखने वाली स्नेहमयी महिला, और दादाजी थे काले रंग के लंबे चौड़े शरीर के मालिक और अपने ओहदे के ही मुताबिक एक बेहद रौबदार व्यक्तित्व | सो, पिताजी गए थे दादी पर और चाचा और बुआ गए थे दादाजी पर | ऐसा नहीं था कि पिताजी का रौब था ही नहीं- उनका तो भूरी भूरी बिल्ली आँखों से घूरना भर ही काफ़ी होता था धमकाने के लिए | उन्हें कभी ज़रूरत ही नहीं हुई किसी को डाँटने फटकारने की | रही बुआ जी की बात, तो वह एक आम घरेलू औरत जैसी ही थीं | हाँ, कभी बचपन में चेचक निकली थी- जो उनके चेहरे पर सदा के लिए अपनी निशानियाँ छोड़ गई थी |
दादीजी बताया करती थीं कि दादाजी को गुस्सा बहुत था | जबकि वे खुद बहुत सी बातों को हंसकर टाल दिया करती थीं | दिल में उनके सभी के लिए स्नेह भरा हुआ था | सरोज कभी कभी सोचती थी कि दादी सब पर इतना प्यार लुटाती थीं, फिर माँ के साथ ऐसा व्यवहार क्यों करती थीं ? पर कुछ समझ न पाती थी | मिलने जुलने वाले बताते थे कि दादाजी के मरने का दादी को बड़ा सदमा पहुंचा था, क्योंकि तीनों बच्चे अभी छोटे थे, और दादाजी के सामने ही चौदह-पन्द्रह साल के पिताजी कूद पड़े थे आज़ादी की लड़ाई में | दादी ने सोचा था कि शादी के बाद वे संभल जाएंगे, इसीलिए निहायत ही खूबसूरत लड़की ढूँढकर पिताजी की शादी कराई थी | पर पिताजी तब भी अपने आन्दोलनों में लगे रहते थे | रात दिन की जेल, पुलिस से छिपना, आए दिन के इन क़िस्सों ने परिवार की कमर तोड़कर रख दी थी | और इसका गुस्सा निकलता था माँ पर कि यदि वो रोकतीं पिताजी को तो शायद वे ये सब नहीं करते | बुआ और चाची को भी इसकी आड़ में अपने मन की भड़ास निकालने का मौक़ा मिल जाया करता था |
चाचाजी भी दादाजी की ही तरह गुस्सैल थे- गुस्सा आ जाए तो बिगड़ा सांड भी उनके सामने कुछ नहीं | दूसरी तरफ पिताजी थे बिल्कुल कोमल ह्रदय के मनमौजी और हँसमुख |
बहरहाल, सरोज को गर्व होता था दादाजी के बारे में सुन सुनकर कि वह ऐसे व्यक्ति की पोती थी | दादी बताती थीं कि दादाजी अपनी जेल के क़ैदियों पर बेहद सख्ती से पेश आते थे | अगर कोई कहता कि फलां आदमी गुनाहगार नहीं है, फैसला होने पर बरी हो जाएगा, तो वे इस बात को मानने को तैयार ही नहीं होते थे | वे समझते थे कि बिना किसी अपराध के कोई भला जेल में क्यों भेजा जाएगा ? लिहाज़ा सभी क़ैदियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाने के हक़ में रहते थे | किसी भी मुज़रिम से इक़बाले-ज़ुर्म कराना उनके बाएँ हाथ का काम था | ऐसी मार मारते थे कि आदमी के सामने न किए ज़ुर्म का भी इक़बाल करने के सिवाए और कोई रास्ता न बचता था |
दादाजी बड़े थानेदार थे, सो उन्हें जेल के साथ ही एक बंगला मिला हुआ था रहने के लिए | बंगले में बहुत सारे फलों फूलों के पेड़ लगे हुए थे | चारों तरफ काँटों की बाड़ लगी थी | बंगले के बाहर एक सिपाही की ड्यूटी हर वक़्त रहा करती थी, कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता था | आने जाने के लिए एक घोड़ा मिला हुआ था सईस के साथ | घर के काम करने के लिए नौकर थे, जो पुराने सज़ायाफ्ता मुज़रिम ही हुआ करते थे | माली, धोबी, जूते पालिश करने वाला- हर कोई क़ैदी ही होता था | रात को उन सबको उनकी बैरकों में वापस भेज दिया जाता था | कई बार तो दादी को डर भी लगता था कि कहीं कोई मुज़रिम घर में कुछ उल्टा सीधा काम करके भाग गया तो क्या होगा | पर दादाजी समझाते थे कि कड़ी पहरेदारी है, भागने की कोई सोच भी नहीं सकता | गोरखपुर में सात थानों के इंचार्ज थे दादाजी |
दादी को याद आता था कि दादाजी या तो सारा सारा दिन क़ैदियों के साथ माथापच्ची करते या फिर दौरे पर निकल जाते घोड़े पर सवार होकर | दादाजी पुलिस में होते हुए भी पक्के कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे और छुआ छूत में पूरा यकीन रखते थे | सुबह जल्दी उठकर पूजा पाठ करने के बाद ही घर से निकलते | घर का ही बना खाना खाते थे दोनों वक़्त | बहुत सधा हुआ जीवन था उनका | कई बार कई कई दिनों के दौरे पर भी जाना हुआ करता था | ऐसे में वे घर से लड्डू मठरी बनवाकर ले जाया करते थे और साथ में खच्चर पर लदे सामान में पानी की सुराही भी रख लिया करते थे | साथ में किसी ऐसे किसी सिपाही को लेकर जाते थे जो खुद भी पंडित होता था | भूख लगने पर कहीं किसी मंदिर के चबूतरे पर चटाई बिछवाकर हाथ पाँव धोकर बैठ जाया करते थे और घर से लाए लड्डू मठरी खाकर पानी पी लिया करते थे | कभी किसी हलवाई के यहाँ से कड़ाही का पका दूध आ जाया करता था | और किसी चीज़ का शौक़ नहीं था |
दादी को घर में काम के लिए आने वाले नौकरों से पता चला करता था कि आज फलां आदमी की बेहद पिटाई करवाई थानेदार साहब ने | वो लहू लुहान हो गया था | तब दादी से नहीं रहा जाता था | महाराजिन से खाना बनवातीं, टिफिन में रखतीं, फर्स्ट ऐड का डिब्बा साथ में रखतीं (दादीजी वैद्य की बेटी थीं और अपने पिताजी से घायल आदमी की मरहम पट्टी करना सीख लिया था | आयुर्वेद की दवाओं का भी ज्ञान था उन्हें, और उस ज़माने के हिसाब से काफ़ी पढ़ी लिखी भी थीं | साथ ही कुछ न कुछ पढ़ते रहने का शौक़ भी रखती थीं |) दादाजी के दौरे पर निकल जाने के बाद चादर ओढ़कर एक नौकर के साथ जेल पहुँच जातीं | संतरी उन्हें देखते ही तपाक से सेल्यूट मारता और भीतर आने के लिए गेट खोल देता | भीतर बैठे सभी लोग जानते थे कि थानेदारनी उस घायल की सेवा के लिए आई हैं आज सुबह थानेदार साहब ने जिसकी पिटाई करवाई थी | दादी के कहने पर उस आदमी को बुलवाया जाता | दादी अपने हाथों से उसकी मरहम पट्टी करतीं, पेटभर भोजन करातीं, साथ ही जानने की कोशिश करतीं कि किस ज़ुर्म में अंदर किया गया था | खिलापिलाकर और अच्छे काम करने की नसीहत देकर उसे अपने सामने ही उसकी जगह वापस भिजवाकर घर लौट आती थीं | यही कारण था कि जेल के क़ैदी क्या और स्टाफ क्या- हर कोई दादी जी को किसी देवी से कम नहीं मानता था | दादाजी भी जानते थे दादी की इस आदत को | कई बार समझाया भी था कि ऐसा न किया करें, ऐसा करने उनके काम में बाधा पड़ती है | पर दादी कुछ सुनती ही नहीं थीं | मुज़रिमों पर क़हर बरपा देने वाला दादाजी का गुस्सा दादी के सामने उड़नछू हो जाया करता था | कई बार दादाजी से लड़ाई भी हुई दादी की “क्यों इस तरह लहू लुहान करवाते हो बेचारों को ? अरे उन्हें सीख दो आगे से कोई गलत काम न करें | प्यार से कहोगे तो क्या नहीं मानेंगे ?”
“उहुं! प्यार से ?” दादी की बात पर झुँझलाकर दादाजी बोलते “रामप्यारीजी, ये ऐसे वैसे मुज़रिम नहीं हैं | इनमें से ज़्यादातर तो खून करके आए हुए हैं | और चलिए आपके कहने से मान भी लेते हैं कि प्यार से समझाना चाहिए | पर आप तो उन्हें प्यार से ही समझाकर आती हैं न ? क्या आप गारंटी ले सकती हैं कि ये लोग आगे से ऐसा कुछ नहीं करेंगे और अपने अपराधों का प्रायश्चित करेंगे ?”
“हम कुछ नहीं जानते | हम तो बस इतना चाहते हैं कि आप उन लोगों को इतना न पिटवाया करें | क्या मिल जाता है आपको ऐसा करके ?”
“यानी अब आप हमें हमारा काम समझाएंगी |”
हम कुछ नहीं समझा रहे आपको | बस आप अपने काम कीजिए और हमें हमारा करने दीजिए |” झल्लाकर दादी जवाब देतीं |
अभी ये लोग गोरखपुर में ही थे कि पिताजी पैदा हुए थे १६ नवंबर १९१७ को | उस दिन खुश होकर दादाजी ने अपने अंडर आने वाली सारी जेलों में दिल खोलकर मिठाई बंटवाई थी | पिताजी के नामकरण वाले दिन तो सबके लिए जेल में ही खाना भी भेजा गया था | कुछ दिन वहाँ बहुत शांति से गुज़रे थे | पिताजी दो साल के थे तो दादाजी का ट्रांसफर कानपुर हो गया था | ट्रांसफर तरक्की के साथ हुआ था- गोरखपुर में सात थाने थे दादाजी के पास, पर कानपुर में देहात के १६ थाने दादाजी के पास आ गए थे | यानी १६ थानेदार दादाजी के नीचे थे | अब दादाजी का रैंक क्या था इतना तो दादी को ठीक से नहीं मालूम था, पर थे वो “बड़े थानेदार साहब” और “दारोगा साहब” के नाम से ही मशहूर |
कानपुर आकर दादी का जेल में क़ैदियों की सेवा करना काफ़ी कम हो गया था | एक तो पिताजी छोटे थे, दूसरे दादी का पाँव एक बार फिर भारी था | एक बात और हो गई थी- अब जेल में अपराधी कम और क्रांतिकरी तथा सत्याग्रही अधिक आ रहे थे | दादाजी को डर था कि अगर किसी अँगरेज़ ने उनकी पत्नी को क़ैदियों की सेवा करते देख लिया तो शायद नौकरी से ही हाथ धोना पड़ जाए | या कहीं दादाजी को ही स्वतंत्रता सेनानी समझ कर जेल में डाल दिया गया तो फिर परिवार का क्या होगा | लिहाज़ा दादी को सख्त हिदायत दी थी दादाजी ने कि यहाँ पर कभी जेल में नहीं जाएँगी | दादी भी वक़्त की नज़ाकत को समझती थीं, इसलिए मन मार कर ही सही, दादाजी की बात मान ली थी उन्होंने | फिर भी दादाजी से चोरी छिपे कुछ न कुछ खाने का सामान भिजवाती ही रहती थीं जेल में |
कानपुर में चाचा और बुआ का जन्म हुआ | दादाजी उस समय तक कई मैडल पा चुके थे | पिताजी स्कूल जाने लायक हो गए थे और एक अच्छे स्कूल में उन्हें भर्ती करा दिया गया था- जहाँ ज़्यादातर अंग्रेज़ों के बच्चे पढ़ते थे | दादी बताती थीं कि जब तक कानपुर रहे, पिताजी को, और बाद में चाचा को भी सईस घोड़े पर बैठाकर स्कूल ले जाया करता था | पिताजी ने कानपुर से ही दसवीं पास की थी और अच्छे नम्बरों से पास हुए थे |
स्कूल में पढ़ते हुए ही पिताजी का मेल जोल सत्याग्रहियों से हो गया था | काफ़ी सारे काँग्रेसी पिताजी के दोस्त बन चुके थे | चाचा एक तो काफ़ी छोटे थे उस वक़्त, दूसरे उनकी दिलचस्पी भी नहीं थी इन सारे कामों में, इसीलिए उन्होंने दादाजी से शिक़ायत भी की पिताजी की | दादाजी को डर हुआ कि कहीं किसी अँगरेज़ को इस बात का पता न लग जाए | उन्होंने पिताजी को रोकना चाहा तो पिताजी ने दादाजी के सामने वादा कर लिया कि उन लोगों से मिलना जुलना बंद कर देंगे, पर चोरी छुपे सारी गतिविधियों से जुड़े रहे | इन नई उमर के लड़कों के आन्दोलन में जुड़ने से और बातों के साथ एक फ़ायदा यह भी था कि इनके ज़रिए लोगों तक अपनी बात पहुँचा सकते थे आज़ादी के दीवाने, क्योंकि “बच्चों” पर पुलिस ज़ल्दी से शक नहीं करती थी |
इसी दरम्यान कानपुर में जबरदस्त दंगा भड़का | दंगा किन लोगों के बीच भड़का था, दादी की बातों से इस बात का तो पता सरोज को नहीं चल सका था, पर उस दंगे को क़ाबू करने का काम दादाजी को सौंपा गया था | दादाजी ने रात दिन एक कर दिया दंगे पर क़ाबू पाने के लिए | दादी बताती थीं कि दादाजी रात-दिन घोड़े पर सवार होके सारे देहातों का दौरा किया करते थे | कई जगह उन्हें फायरिंग भी करवानी पड़ी थी | दादाजी के प्रयासों से जल्दी ही दंगे पर क़ाबू पा लिया गया था | इसी दंगे में किसी अँगरेज़ अधिकारी की पत्नी कहीं फँस गई थी और गाँव के लोग उसे मार ही डालने वाले थे कि दादाजी ने ऐन मौके पर पहुँचकर हवा में गोलियाँ चलाईं और भीड़ को तितर बितर करके उस अँगरेज़ औरत को उसके घर पहुँचाया | हालाँकि उस हवाई फायरिंग की चपेट में कुछ गाँववाले भी आ गए थे | पर थानेदार कन्हैयालाल मुज़रिमों और दंगा फ़साद करने वालों के लिए आतंक का पर्याय बन चुके थे, सरकार थी अंग्रेज़ों की, और दादाजी थे अंग्रेज़ों के वफ़ादार, इसलिए कोई कुछ बोल न सका | दादाजी ने जिस तरह दंगे पर क़ाबू पाया था और उस अँगरेज़ औरत की जान बचाई थी उसी के इनामस्वरूप दादाजी की कुछ तरक्की भी हुई थी और उन्हें एक मैडल दिया गया था- फक़त सोने का बना |
जैसे जैसे आज़ादी की लड़ाई जोर पकड़ती जा रही थी, दादाजी और अधिक परेशान रहने लगे थे | अपनी ज़ेलों में आने वाले आज़ादी के परवानों का दादाजी दिल से बहुत सम्मान करते थे और उनके चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाना चाहते थे, पर इसके विपरीत सरकारी आदेशों के चलते उन्हें यातनाएँ देनी पड़ती थीं | कई बार नौकरी छोड़ने की मन में आई, पर लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया | ऐसा करने पर वे भी उन क्रान्तिकारियों में ही गिने जाते और अंग्रेज़ उनकी सारी ईमानदारी और सेवाएँ भूल उन्हें भी ज़ेल में डाल सकते थे | बच्चे छोटे थे- क्या होता उनका! लिहाज़ा वे मन मारकर नौकरी करते रहे और उन देशप्रेमियों पर…
तभी एक दिन कुछ ऐसा घटा जिसकी इस परिवार ने कभी कल्पना भी नहीं की थी | दादाजी सुबह के नित्यकर्म से निबट कर पूजा के लिए बैठे ही थे कि थाने से संतरी आकर खड़ा हो गया | दादी ने पूछा तो बताया “बड़े अफ़सर मिलना चाहते हैं थानेदार साहब से, अभी बुलाया है…”
बड़े साहब अचानक कैसे आ गए ? सोचते हुए थानेदार साहब ने पूजा के कमरे से ही आवाज़ दी “अरे मंगलू, तुम चलो, मैं बस अभी हाज़िर हुआ |”
“जी साहब!” मंगलू ने जवाब दिया और वहीँ से सेल्यूट मार कर चला गया |
आज पिताजी का दसवीं का रिज़ल्ट आना था, इसलिए दादाजी ज़रा कुछ खास ही पूजा कर रहे थे- भगवान से प्रार्थना करने के लिए कि हे भगवान! बेटे को अच्छे नंबरों से पास करा दो तो बड़े साहब से कहकर किसी नौकरी का इंतज़ाम करवा दूँगा | घर में सभी लोग रिज़ल्ट आने के बाद जश्न मनाने की तैयारी में थे | पूजा पाठ से निबट कर धुली चमकती हुई वर्दी पहनकर, सर पर यूनीफार्म का बड़ा से हैट लगाकर, कमर में बंदूक लटका थानेदार साहब घर से निकलने लगे तो दादी बोलीं “आज कुछ खाना नहीं है क्या ? कुछ तो खाते जाते | पता नहीं कितनी देर लग जाए…”
“आज लगता है पेट ठीक नहीं है | कुछ खाने का मन नहीं | ऐसा करो, आप टिफिन में कुछ रखकर किसी के हाथ भिजवा देना | ये गंगा ही दे आवेगा | वहाँ बड़े साहब को अपने रिज़ल्ट के बारे में भी बता आवेगा!” और दादाजी बाहर निकल गए |
दादाजी चले तो गए, पर दादी को बिना किसी बात के ही रोना आ रहा था | उनकी दाहिनी आँख न जाने क्यों आज बहुत फड़क रही थी | ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ | किसी अनहोनी की आशंका से उनका मन काँप काँप जाता था | दादी रसोई में वापस पहुँचीं और महाराजिन को कुछ बनाने का आदेश देकर मन ठीक करने के लिए घर के मंदिर में जा बैठीं आलथी पालथी मारकर और ईश्वर से सबकी सलामती की प्रार्थना करने लगीं | वैसे भी प्राणायाम और ध्यान उनकी रोज की दिनचर्या में शामिल थे |
उधर दादाजी दफ़्तर पहुँचे | बड़े साहब काफ़ी देर से उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे | दादाजी ने बड़े साहब को सेल्यूट मारा और सर से टोप उतारकर बगल में दबा लिया | बड़े साहब ने दादाजी को सामने वाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और दरबान को इशारे से बाहर जाकर दरवाज़ा उड़काने के लिए कहा | उसके बाद दोनों में क्या बातें हुईं, कोई नहीं जानता | दोनों को बातें करते काफ़ी देर हो चुकी थी इसलिए बाहर से लोग भीतर झाँककर देख लेते थे | शीशे में से बस इतना ही पता लग पा रहा था कि किसी बात को लेकर कुछ गरमा गर्मी हो रही थी | इस बीच बड़े साहब ने कई बार घंटी बजाकर दरबान को भीतर बुलाया और उसके द्वारा कुछ और लोगों को भी भीतर बुलवाया गया | वे लोग भी आते थे, भीतर जाकर कुछ बातें करते थे, और चुपचाप बाहर निकल जाते थे | बाहर दफ़्तर के लोग इकठ्ठा थे जानने के लिए कि बड़े थानेदार साहब से आज क्या सवाल जवाब कर रहा है ये अंग्रेज़ अफ़सर |
इसी बीच पिताजी खाने का टिफिन लेकर दफ़्तर पहुँच गए | रिज़ल्ट आ गया था- सेकण्ड डिवीज़न | मायने रखता था उस ज़माने में ऐसा रिज़ल्ट | दादी ने खुश होकर दफ़्तर भेजा था पिताजी को दादाजी के लिए खाना लेकर और बड़े साहब को रिज़ल्ट बताने के लिए | साथ में लड्डुओं का एक बड़ा सा डिब्बा भी दिया था वहाँ सबको बाँटने के लिए | दरबान ने भीतर जाकर पिताजी के पहुँचने की सूचना दी तो उन्हें भीतर बुला लिया गया | पिताजी भीतर पहुँचे तो वहाँ वातावरण बड़ा बोझिल सा नज़र आया | दादाजी अपनी कुर्सी पर सर झुकाए बैठे थे | इससे पहले कि पिताजी कुछ समझ पाते, उनके कानों में आवाज़ पड़ी “गंगाप्रसाद…” बड़े साहब पिताजी से पूछ रहे थे “कैशा राहा टूम्हाड़ा रिज़ल्ट ?”
“जी सेकण्ड डिवीज़न सर…” गर्व के साथ पिताजी ने जवाब दिया |
“गुड… यू नो, आई वाज़ टेलिंग योर फादर दैट यू आर ए जीनियस… देन व्हाय यू ज्वाइन दीज़ ब्लडी फ्रीडम फाईटर्स ? आई मीन, दीज़ टेररिस्ट्स ?”
पिताजी को “टेररिस्ट” शब्द सुनकर एक बार तो आग लग गई, पर दादाजी की वजह से उन्होंने खुद पर नियंत्रण रखा और विनम्रता से सर झुकाए खड़े रहे |
“गंगाप्रसाद, दिस टाइम आइ हैव नो विटनेस अबाउट योर एक्टीविटीज़… बट रिमेम्बर… बी केयरफुल… यू कैन गो नाउ… आइ प्रामिस्ड योर फादर टु थिंक अबाउट योर फ्यूचर… ओ.के.? सो, डोंट डिस्टर्ब योर फादर… ही इज़ ए वैरी रेप्युटेड पर्सन एंड वैरी हार्ड वर्कर…” और मुँह में पाइप दबाए वो अंग्रेज़ बाहर निकलने ही वाला था कि दादाजी की साँस सहसा ज़ोर ज़ोर से चलनी शुरू हो गई | उन्हें बेहद पसीना आ रहा था | पिताजी के हाथ से खाने का टिफिन छूटकर नीचे गिर पड़ा | अंग्रेज़ अफ़सर ने फ़ौरन घंटी बजाकर दरबान को बुलाया और पिताजी को इशारा किया कि वे दरबान के साथ मिलकर दादाजी को नीचे लिटा दें और उनकी छाती मलनी शुरू करें | साथ ही एक आदमी को अस्पताल दौड़ाया कि डाक्टर से बिस्तर तैयार रखने को कहे | अस्पताल की गाड़ी आ गई और दादाजी को उसमें लिटाकर पिताजी कुछ दूसरे सिपाहियों के साथ अस्पताल चले | रास्ते में ही दादाजी को एक हिचकी आई और उनका तड़पना बंद हो गया | उनकी गर्दन एक ओर को लुढ़क गई थी | फिर भी अस्पताल तो पहुँचाया ही गया- जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया | दिल का दौरा पड़ने से दादाजी की मृत्यु हो गई थी |
दादाजी का शव लेकर पिताजी घर पहुँचे | दादी को जैसे ही पता चला, वे पछाड़ खाकर गिर पड़ीं | चाचा और बुआ ने उन्हें सम्हाला और चारपाई पर लिटाया | घर में लोगों का हुजूम इकठ्ठा हो गया था | पूरे सम्मान के साथ दादाजी का अंतिम संस्कार किया गया | उनके अंतिम संस्कार में उस अंग्रेज़ अफ़सर के साथ कुछ दूसरे अंग्रेज़ भी मौजूद थे | शमशानघाट में ही उस अंग्रेज़ अफ़सर ने दादाजी की वीरता के कुछ किस्से वहाँ इकठ्ठा हुए लोगों को सुनाए | दादाजी की तेरहवीं में स्टाफ के लोगों के साथ साथ अंग्रेज़ भी आए थे | ज़ेल में क़ैदियों ने दादाजी को श्रद्धांजलि अर्पित की थी | कुछ लोगों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ नारेबाज़ी भी की थी- यही सोचकर कि उस दिन उस अंग्रेज़ अफ़सर ने ज़रूर कुछ ऐसा कहा होगा पंडित जी से कि उन्हें अचानक दिल का ऐसा जबरदस्त दौरा पड़ा कि वे बच नहीं सके | शायद इसी सबसे घबराकर बड़े साहब ने एक दिन पिताजी को दफ़्तर बुलाकर नौकरी की पेशकश की थी | पर दादी इस हादसे से बेहद डर गई थीं | वे अपना मानसिक संतुलन क़रीब क़रीब खो ही चुकी थीं | उन्हें ये भी डर था कि पिताजी अंग्रेज़ों की नज़रों में आ चुके हैं एक क्रन्तिकारी के रूप में | ऐसे में अगर पिताजी को वहाँ काम मिल गया तो क्या पता वे लोग कुछ दिनों बाद पिताजी को भी सबके साथ ज़ेल में ही ठूँस दें | उधर पिताजी तो पहले से ही अंग्रेज़ों से ख़ार खाए बैठे थे | लिहाज़ा उन्होंने बड़े साहब से बस इतना ही कहा “पिताजी रिटायरमेंट के बाद धामपुर जाकर ही बसना चाहते थे | मेरी माँ भी अब अपने परिवार के साथ ही रहना चाहती है | मैं उनकी यही इच्छा पूरी करने के लिए धामपुर जाना चाहता हूँ |”
दादीजी की पेंशन बांध दी गई थी | दादाजी का स्वर्गवास ड्यूटी पर ही हो जाने के कारण सरकार से मुआवज़े में भी अच्छी ख़ासी रकम मिली थी | साथ ही दादाजी की अंग्रेज़ों के प्रति वफ़ादारी को देखते हुए एक खत भी मिला था, जिसमें परिवार के किसी एक लड़के को पुलिस में नौकरी दिए जाने का वादा था | इस तरह थानेदार कन्हैयालाल का यह परिवार कानपुर से अपना सारा ताम झाम समेट कर धामपुर आकर बस गया था, हमेशा हमेशा के लिए |

सौभाग्यवती भव

उपन्यास के विषय में

“सौभाग्यवती भव” मेरे जीवन के एक महत्त्वपूर्ण और अभागे पात्र के साथ जुड़ा हुआ है | मैं जानती हूँ की विश्व के हर देश, हर समाज, हर वर्ग में स्वयं विषपान कर, अपने स्तनों से अमृतपान कराने वाली ऐसी ही स्त्री-शक्ति की अनकही गाथा विद्यमान है | इस पुरुषप्रधान समाज में आदिकाल से ही स्त्री ने अपने धैर्य-शक्ति-सहनशीलता-बुद्धि और चरित्र से बार बार यह सिद्ध किया है की वह पुरुष से इक्कीस ही है, तब भी राम जैसे युगपुरुष और महानायक तथा आज की परिभाषाओं में “भगवान” को भी पुरुषप्रधान मानसिकता की संतुष्टि के लिए स्त्री की ही अग्निपरीक्षा की ज़रूरत क्यों पड़ी ? इस देश में आज भी लाखों उदाहरण ऐसे हैं कि यौवन में ही वैधव्य भुगतने वाली स्त्री ने संतान और परिवार के हित में अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को नकार कर संघर्ष का काँटों भरा रास्ता चुना, जबकि अपवादस्वरूप संभवतः एकाध पुरुष ने ही कभी ऐसा त्याग किया हो …

“सौभाग्यवती भव” ऎसी ही एक सशक्त महिला की कथा है जिसने जीवन में दुर्भाग्य और विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए अपने जीवन की आहुति दे दी पर स्वाभिमान की कीमत पर कोई समझौता नहीं किया | यह उपन्यास समर्पित है ऎसी ही उन सब वीरांगनाओं को जो आज भी अपने संघर्ष और साहस के बूते विषमताओं और दुर्भाग्य से जूझ रही हैं |

यह उपन्यास समर्पित है मेरी बिब्बी को, जिन्होंने जीवन में कभी हार मानना नहीं सीखा था… पर मौत से भी भला कोई जीत सका है ? लेकिन वे जब तक जीवित रहीं – जीवन के झंझावातों से जूझती रहीं… पूरी जिंदादिली के साथ…

 

मेरा यह उपन्यास “सामयिक प्रकाशन”, 3320-21 जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरयागंज, नई दिल्ली – 1100002 से प्रकाशित हुआ था | अधिक जानकारी के लिए आप प्रकाशक से इसी पते पर पत्र लिख सकते हैं या 01123282733 पर फोन कर सकते हैं या samayikprakashan@gmail.com पर मेल कर सकते हैं | धन्यवाद

डा. पूर्णिमा शर्मा

एक

“क्या औरत की योनि में जन्म लेना पाप है ? क्या माँ बेटी के रिश्तों में सौतेलापन आ सकता है ? क्या, जो औरत विधवा होने के बाद बच्चों की परवरिश करते समय बाप का फ़र्ज़ भी निभाती है वही उन बच्चों के शादी ब्याह के मौकों पर “अपशकुनी” बन जाती है ? पीठ पर पैदा हुए भाई मर जाएँ तो क्या उस औरत को “करमजली” मान लेना चाहिए ? “अभागिन” मान लेना चाहिए ? सारी ज़िंदगी जो लोग “दूधों नहाओ, पूतों फलो” और “सौभाग्यवती भव” का आशीर्वाद देते नहीं अघाते, वही एक ही पल में उसे अछूता क्यों मान लेते हैं ? क्या यह सही है ? हाँ, यही तो है एकमात्र सच – औरत अगर बिना भाई की है, किसी की सौतेली माँ या सौतेली बेटी है, या दुर्भाग्य ने उसका पति छीन लिया है तो वह “करमजली” ही तो कहलाएगी… “सौभाग्यवती भव” का आशीर्वाद उसके लिए नहीं होता… “डायन” होती है वह… “छिनाल… राण्ड कहीं की…” उसके तो साए से भी दूर रहना चाहिए… कम से कम सरोज बिब्बी के साथ तो यही हुआ था…” दिल्ली से नजीबाबाद जाते जाते नीलम सोचती जा रही थी और आँसुओं से नहाती जा रही थी | ड्राइवर उसकी हालत समझकर “मैडम पानी लेंगी?” पूछ लेता था | नीलम को कहाँ होश था आज कुछ भी खाने पीने का ? ड्राइवर थक गया था, सो मवाना पहुँचकर उसने चाय पीने के लिए एक दूकान के आगे गाड़ी रोकी तब कहीं जाकर नीलम को कुछ होश आया |

नीलम ज़ल्दी से ज़ल्दी नजीबाबाद पहुँच जाना चाहती थी | सारी रात उसने आँखों में ही गुज़ार दी थी | सुबह चार बजे ही ये लोग चल पड़े थे | मोबाईल की घंटी बजी “हेलो… हाँ बस अभी मवाना से निकले हैं चाय पीकर… हाँ हम ठीक हैं, आप चिंता मत कीजिए… हाँ, वहाँ पहुँचकर फोन कर देंगे…” नरेश अमेरिका में थे और हर १५-२० मिनट के अंतराल पर फोन करके नीलम का हाल जान लेते थे | वे नीलम की उस रात की मानसिक हालत से अच्छी तरह वाकिफ़ थे | रात को उन्हें फोन पर सारी बात बताई थी नीलम ने, तभी से वे उसके लिए परेशान थे |

“ट्रिंग-ट्रिंग…” मोबाइल की घंटी फिर बजी | देखा, किसी क्लब मेंबर का फोन था | जानती थी कि “हैप्पी न्यू ईयर” के लिए फोन किया होगा | काहे का न्यू ईयर ? दिसंबर का महीना हमेशा ही उसके लिए दुस्वप्न बन कर आता है | २५ दिसंबर १९६५ को जीजा जी को छीन लिया भगवान ने, २६ दिसंबर १९९० को पापा, और आज ३१ दिसंबर को ये… ज़िंदगी में अब कभी न्यू ईयर सेलिब्रेट करने की नहीं सोचेगी | फोन आते रहे | नीलम काटती रही |

मवाना से ही हाथ को हाथ न सुझाई देने वाला घना कोहरा शुरू हो गया था | ड्राइवर को गाड़ी चलाने में काफ़ी दिक्क़त हो रही थी | लगातार पार्किंग लाईट ऑन किए चींटी की चाल चल रही थी गाड़ी | सामने से आने वाली गाड़ियों की फाग लाइट्स भी बिलकुल बुझते हुए दीए की तरह दिखाई पड़ती थीं, वह भी बिलकुल नज़दीक आ जाने पर | रास्ते में दो तीन जगह एक्सीडेंट हुए पड़े थे | पर नीलम के मन में जो कोहरा था उसी से लड़ती वह गाड़ी में बैठी थी |

अम्मा जी को रात ही फोन कर दिया था | कितनी परेशान हो गई थीं सुनकर | इस उम्र में यही देखना और बाक़ी था | किस तरह से बोल रही थीं “इससे तो भगवन मुझे ही उठा लेता…”

“अब किधर जाना होगा मैडम ?” ड्राइवर ने पूछा तो नीलम की तंद्रा भंग हुई | गाड़ी के शीशे पर काफ़ी फोग आ चुकी थी | हैंड टॉवल से उसे पोंछकर बाहर झाँका “हूँ… अच्छा, किरतपुर पहुँच गए ? देखो वो उधर रेलवे फाटक से ले लो | हाँ उधर से | अभी सीधे चलो | महेंदर चाचा जी की दुकान आ गई | यहाँ से फिर सीधे सीधे चलो | हाँ, ये बस अड्डा… ठीक ! बस, इधर बाँए से मोड़ लो | अब यहाँ बाज़ार से दाहिने | वो रही राममोहन की दुकान और वो हरिया ताऊ जी की दुकान…” जीजा जी ने कितने ऐश कराए थे इस दुकान पर, पर सब कुछ… एक ठंडी साँस भरी नीलम ने फिर बोली “संतोष, देखो तंग सड़क है उधर, ज़रा संभल के… बस भाई आ गए…” नजीबाबाद के चप्पे चप्पे से पहचान थी नीलम की | होती भी क्यों न… वहीं पली बढ़ी… ज़िंदगी के २९ वसंत वहीं तो गुज़ारे थे…

ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी |

“हाँ हम पहुँच गए…” नरेश का फोन फिर आ गया था |
बाहर लोगों की भीड़ लगी थी- यहाँ ढाली से लेकर उधर कृष्णकुमार चाचा के घर के बाहर तक लोगों का हुजूम जमा था | नुक्कड़वाले हलवाई की दुकान पर बगलवाले मंदिर से नाथ के बच्चे निकलकर भीड़ लगाए घर की तरफ देख रहे थे मानों कोई तमाशा देख रहे हों | चबूतरे पर उमेश भैया और पंडित जी अर्थी की तैयारी में लगे थे | नीलम का कलेजा मुंह को आ रहा था | कुछ पल उन लोगों के पास ठिठकी, फिर हिम्मत करके घर के भीतर जाने को आगे बढ़ी |

“आ गई लल्ली !” किसी ने पीछे से आवाज़ लगाई तो भीतर जाती जाती नीलम ने घूमकर देखा- हरिओम भैया खड़े थे | नीलम ने एक पल देखा और लिपट गई भैया से |

“न रो लल्ली, यही होना था- जा भीतर जा…” सांत्वना देते हुए भैया ने नीलम को छोड़ दिया | वह आँखें पोंछती भीतर हाल में जा पहुँची |

“अरे वो नीलम आ गई ! दिल्ली वाली…” वहाँ बैठी औरतों में से कोई खुसफुसाकर बोली | सामने कालीन पर सफ़ेद चादर में लिपटा बिब्बी का निर्जीव शरीर पड़ा था और उससे बिलकुल सटी, उसके ऊपर अपना सर रखे सारी दुनिया से बेखबर बैठी थीं अम्मा जी, मानों चिता पर जाने से बचा लेंगी बेटी को… छीन लेंगी वापस काल के हाथों से… बदले में कर देगी खुद को उसके हवाले कि ले तुझे एक शरीर की बलि ही चाहिए न तो मेरा शरीर ले ले, पर मेरी बेटी को छोड़ दे | बड़े नाज़ों की पाली थी | या मानों लोगों से कहना चाह रही हों कि इसके पास मत आना… थक हार कर गहरी नींद सोई है | उस निर्जीव शरीर के सिरहाने एक दीया जल रहा था- शायद कहना चाह रहा था कि मिट्टी का तन है मेरा, और जीवन भी क्षणभंगुर- जल्दी ही मिट्टी में मिल जाना है |

धड़कते दिल से वहीं विन्नी के पास जाकर बैठ गई नीलम “पप्पू रग्घू आ गए ?”

विन्नी ने “न” में सर हिला दिया और नीलम के कंधे से लगकर फफक उठी |

“कोई उम्मीद? लेने गया है कोई?”

“हाँ ये और सतीश गए हैं… पता नहीं छुट्टी मिलेगी या नहीं…”

“फिर कौन करेगा ?”

“भरत को तैयार कर रहे हैं रमेश भैया…” बाहर की तरफ इशारा करके विन्नी बोली | नीलम ने दरवाज़े से बाहर देखा- भरत ने सफ़ेद कुर्ता पहन रखा था, कंधे पर गमछा डाल रखा था और अब रमेश भैया उसे धोती पहना रहे थे | पास ही हेमा उसका स्वेटर लिए खड़ी थी “दिसंबर की ठण्ड है, पहन ले, सारे करम तुझे ही करने हैं… बीमार पड़ गया तो क्या होगा?”

“कह दिया न नहीं पहनना | दादी थी मेरी वो…” झुंझलाकर भरत ने जवाब दिया और आँखों में उमड़ आए आँसुओं को पलकों पर रोकने की नाकाम कोशिश करने लगा | भीतर बैठी नीलम के दल में हूक उठने लगी- ये छोटा सा बच्चा ! और नहीं देखा गया तो हाल में बैठी औरतों की तरफ यों ही निष्प्रयोजन ताकने लगी- खाली खाली नज़रों से…

अभी दो महीने पहले ही तो मिलकर गई थी बिब्बी से | विन्नी का सर सहलाती नीलम सोच रही थी | बिस्तर पर गाउन में लिपटी, नीचे से अधनंगे बेजान शरीर के साथ पड़ी बिब्बी को सोच में डूबे देखा तो नीलम ने टोका था | बिब्बी बोली थीं “अरी पगली अब क्या सोचना ? वही सारे दिन याद आ जावें हैं कभी कभी |”

नीलम को लग रहा था कि जैसे उस कमरे में बिब्बी की आवाज़ गूँज रही है, और नीलम को भी सारी बातें एक एक करके याद आने लगी थीं- वही सारी बातें जो उसने कभी बिब्बी, पापा या दादी बुआ से सुनी थीं | उसे लगा कि बिब्बी उसके सामने लेटी शायद सोच रही हैं- मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ ? क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का जो आज यों अपाहिज पड़ी हूँ ? अपाहिज ? हाँ अपाहिज ही तो… आज डेढ़ बरस से बिस्तर में पड़ी हूँ | एक सर्दी बीत के दूसरी लग गई | धड़ से नीचे का सारा हिस्सा मारा गया | खाना पीना सब कुछ लेटे लेटे ही करना पड़ा था कुछ दिन तो | अभी भी कौन आराम है ? जब तक रग्घू था तो सारा कम देख लेवे था | अब दस रोज़ तो उसे गए भी हो गए | अब बहुएँ सहारा देके बिठा दें हैं तो बैठकर कुछ खा पी लूँ हूँ, वरना तो लेटे लेटे कमर भी लग गई मरी | कैसे ज़ख़्म हो गए हैं कमर और कूल्हों पे | बहुएँ भी बेचारी क्या क्या करें धनीराम न हो तो…
नीलम वापस जाने लगी थी दिल्ली के लिए तो सरोज ने उसका हाथ पकड़ कर फिर आने का आश्वासन लिया था और साथ ही कहा था “भान्जे हैं तो और भाई हैं तो… अब तो ये ही हैं तेरे… तेरे ही हाथ में अब… नरेश जी को बोलके कुछ करवा इनका…” और हाँ में सर हिलाकर, आँसू पोंछती नीलम लौट आई थी | बिब्बी का वो याचना भरा चेहरा लगातार उसकी आँखों में आज भी घूमता है- उन्हीं बिब्बी का जिन्होंने कभी न जाने कितने याचना करने वालों की झोलियाँ भरी थीं | जिनके रूप की एक झलक पाने को लोग बेताब रहते थे | सोचते सोचते नीलम के दिल में एक हूक उठकर रह जाती है | तभी तो आज नीलम जैसे बिब्बी के उस मृत शरीर की आवाज़ बन जाना चाहती थी और शायद इसीलिए उसने वह सब सोचना शुरू कर दिया था जो या तो बिब्बी सोचा करती थीं या फिर वह सुनाया करती थीं जब कभी मूड में होती थीं |

उस दिन एक लंबी साँस भरी सरोज ने और फिर खाली खाली इतनी बड़ी तिदरी को नज़र भर कर देखने लगी…

सरोज यानी बिब्बी ने खुद ही बताया था नीलम को कि आज न जाने क्यों उसे बार बार नीलम की और पिताजी की याद आ रही थी | नीलम को भगवन ने भेज दिया | भाभी की याद भी बेइन्तहा आ रही थी | साथ ही आँखें दरवाज़े पर लगी हुई थीं- क्या पता पप्पू रग्घू की कोई खबर आ ही जावे…

सारा दिन इतने बड़े घर में अकेली पड़ी उकता जाती है सरोज | बातें करे तो किससे ? जाए तो कहाँ और कैसे ? टट्टी पेशाब तक तो बिस्तर में पड़े पड़े होवे हैं | नीलम ने वो व्हील चेयर भिजवा दी थी रग्घू के हाथ तो जब तक वो रहा, उसपे बिठाके चबूतरे तक ले जावे हा | अब वो नहीं तो बहुओं के बस का कहाँ भला ?

सरोज ने एक बार अपने फालिज़ गिरे शरीर की तरफ दर्द भरी नज़रों से देखा | नीचे का हिस्सा बिलकुल बेकार हो चुका था | पलंग की निबाड़ नीचे से बड़ी बहू ने काट दी थी टट्टी पेशाब कराने के लिए | उसी के नीचे पॉट लगाके काम करा दे है | वरना तो इतने भरे पूरे बदन को उठाना भला एक मरियल सी लड़की के बस का कहाँ ? जो हमेशा “ठेकेदार भगवानदास” के इकलौते बेटे की बहू और पंडित गंगाप्रसाद की लाडली बेटी होने के नाते सारे शहर की शान रही थी कभी, हर जवाँ दिल की धड़कन थी जो कभी, सारे शहर में जिसकी इज्ज़त थी कभी, जो शहर की सबसे खूबसूरत लड़की मानी जाती थी किसी ज़माने में, आज उसी को ऐसे नंगेपन का सामना करना पड़ रहा था ! किसी बच्चे की गेंद खेलते खेलते पलंग के नीचे चली जाए और वह उसे उठाने को झुके तो दादी के ज़ख्मों भरे नंगे चूतड़ देखकर शरमा जाए | पता न कब छूटकारा मिलेगा इस सबसे ? एक बार फिर सरोज ने कमरे की दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़र डाली- एक बजने वाला है | आने वाली होगी हेमा भी स्कूल से… और पलंग पर लेटी लेटी फिर से सोचने लगी उस मनहूस दिन के बारे में जब दोनों लड़कों की गिरफ़्तारी के वारंट आए थे | नीलम को फोन किया था | पता नहीं किस ग़लतफ़हमी की बात हो गई थी उसमें और विन्नी में- दोनों में से किसी ने नहीं बताया था |

पप्पू-रग्घू को सरेंडर कराना ज़रुरी था | किसी तरह से कहीं कुछ बात बन जाए और सरेंडर अभी न करना पड़े, इसी नियत से दोनों को उसी रोज़ रजनी के घर नगीना छोड़ने भागी थी सरोज | दोनों बहुएँ तो डर से पीली पड़ गई थीं | सरोज में इतनी भी ताक़त नहीं थी कि उन्हें सांत्वना दे पाती | स्वयं उसे सांत्वना देने वाला कौन बैठा था ? पहले तो पिताजी ने संभाल लिया था सब कुछ | अब कौन था ? भाभी तो पहले ही शरीर से बेकार थीं | और फिर उनके साथ किया भी क्या था उसने ? किस मुँह से बुलाती उन्हें ? ऐसे में क्या उम्मीद रखती उनसे या नीलम से ?

सरोज को याद आ गया- जब दोनों को नगीना छोड़कर वापस आ रही थी तो उसके कानों में आवाज़ पड़ी थी “अरी अभागी है बड़ी… करमजली है… भगवान किसी को न दे इसके जैसे फुट्टे भाग | बचपन में ही तो माँ कू खा गई | बिया हुआ तो आदमी कू खा गई | लाख का घर था हमारे ठेकेदार चच्चा जी का, आते ही खाक में मिला दिया | जैसे तैसे करके भगवान ने औलाद की कुछ खुसी दी ही तो उसे भी… पता ना जी इत्ता सब हो जाने के बाद भी जिन्दा कैसे है डायन…” पड़ोस के दरवाज़े पर खड़ी शकुंतला साथवाले घर के दरवाज़े पर खड़ी राय कि बीवी से बोल रही थी | सरोज को रिक्शा से उतरते देखा तो बात बदल कर बोली थी “क्या हुआ भाभी ? नगीना छोड़ आई क्या ?”

शकुंतला सरोज की रिश्ते की ननद थी और पड़ोस के घर में ही रहती थी | सरोज ने सूनी आँखों से शकुंतला की ओर देखा, एक पल रुकी, फिर खोई खोई सी आवाज़ में जवाब दिया “हाँ छोड़ तो आई | क्या करूँ, करमजली हूँ न, अभागी हूँ न, डायन हूँ, खाती जा रही हूँ एक एक करके सबको…”

तभी पीछे पीछे विन्नी भी रिक्शा से उतरी थी | रिक्शे वाले को पैसे देते समय उसने भी सारी बातें सुन ली थीं | बिब्बी का हाथ पकड़ कर घर के भीतर खींच ले गई थी |

“बिब्बी… बिब्बी…” विन्नी के ज़ोर से झकझोरने पर सरोज की जैसे तन्द्रा भंग हुई | चौंक कर बोली “एँ, क्या हुआ ?” विन्नी चाय का ग्लास हाथ में लिए खड़ी थी और परेशान सी एकटक सरोज के मुँह को ताके जा रही थी | नजीबाबाद जैसे शहर में- जो कि लगभग तीन तरफ से पहाड़ों से और एक तरफ से मालिनी नदी से घिरा हुआ था- फरवरी की ठण्ड मायने रखती थी | ऐसे में न जाने कब से सरोज बड़ी तिदरी में नंगे फर्श पर बैठी थी- दीवार से सर सटाए | कानों में शकुंतला की बातें गूँज रही थीं “अरी अभागी है बड़ी, करमजली है, डायन… भगवान किसी कू न दे इसके जैसे भाग, बचपन में ही माँ कू खा गई, बिया हुआ तो आदमी कू खा गई, लाख का घर खाक में मिला दिया…” आज वही शकुंतला बीवीजी कितनी अपरिचित, बेगानी सी लग रही थीं जिनके साथ कभी वह अपना हर सुख दुःख बाँटती थी और हर बात पर सलाह लिया करती थी, और जो उठते बैठते सदा सुहागिन रहने के आशीष दिया करती थीं |

“बिब्बी ! आखिर कब तक ऐसे ही खोई खोई बैठी रहोगी ? आज तीन दिन से न कुछ खाया न पिया | ऐसे कैसे काम चलेगा ?” एक लंबी साँस भरकर विन्नी बोली “क्या यों भूखे प्यासे बैठ रहने से सब कुछ ठीक हो जाएगा ?”

“अरी कहाँ, खाना तो खा ही रही हूँ | चाय पी तो थी सुबह | बार बार न पी जाती मुझसे… गैस बन जावे है… जा ले जा वापस…” सरोज बोली और मुँह दूसरी तरफ फेरकर कोठार के दरवाज़े पर गेरू से बने सतिये को ध्यान से देखने लगी | सलूनो (रक्षा बंधन) पर बनाए थे तीनों बहनों ने मिलकर घर के हर दरवाज़े पर भाइयों की कल्याण की कामना से | क्या पता था कि इससे भी कुछ होने वाला नहीं था | आज अपने घर कि वही दीवारें कितनी उदास उदास नज़र आ रही थीं जिन्हें उसने खुद खिले खिले आसमानी रंग से पुतवाया था | आसमानी रंग से उसे ऐसा आभास होता था जैसे खुले आकाश में पंछी की तरह चहकती हुई, पूरी आज़ादी के साथ डैने फैलाती, सारी दुनिया से बेखबर, ऊँची ऊँची उड़ती चली जा रही हो | बचपन से ही किसी ऐसी जगह पहुँच जाना चाहती थी जहाँ न उसे अपना होश रहे न किसी और का | उसके चरों तरफ अगर कुछ हो तो वो हो तारों कि शक्ल में खिले खिले सतरंगी फूल, आकाशगंगा की शक्ल में बहते झरने और उनका सुमधुर दिव्य संगीत और चारों ओर फैली मादक सुगंध- जहाँ वो मस्ती में भर इठलाती-लहराती-बलखाती घूमती रहे दोनों हाथ फैलाकर उस सबको अपने में समाती खो जाए सदा के लिए उस मदमस्त माहौल में… पर भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था…

तभी उसके कानों में फिर विन्नी की आवाज़ पड़ी “मुझे सब पता है बिब्बी, तुम शकुंतला बुआ की ही बातें सोच रही हो न ? मैंने भी सुना था | पर तुम क्यों ध्यान देती हो उनकी बातों पर ? तुम्हें तो पता ही है उनकी आदत का | तुमने भले ही कभी न समझा हो, पर मैं तो हमेशा से पहचानती हूँ उन्हें | हमेशा यही तो किया है उन्होंने | कई बार तुम्हें समझाने की कोशिश भी की कि मत किया करो शकुंतला बुआ से घर की सारी बातें, पर तुमने कभी माना ही नहीं | चलो खैर, किसी को क्या कहें जब हमारे ही भाग… अब उनकी बात सोचनी बंद करो और चाय पी लो…”

“तो गलत क्या कहा उन्होंने ? ऐसी ही तो हूँ मैं…” फीकी हंसी हँसती सरोज बोली “मेरी किस्मत अच्छी होती तो माँ क्यों चली जाती मुझे छोटी सी को छोड़कर ? और तेरे पापा… अपने पिताजी… सभी को तो खा गई मैं… कितना कितना समझाया था पिताजी और भाभी ने, पर एक न सुनी मैंने | काश ! भाभी को सौतेला न मानती होती… भाग अच्छे होते तो उनका कहा मानकर इन दोनों को बचा न लेती ? ये छः छः जानें और लाकर बिठा लीं घर में | कितना कहा पिताजी ने कि पहले केस के बरी होने के पेपर हाथ में आने दो तब इनके ब्याह शादी की सोचना | पर मैं हमेशा की तरह समझती रही कि पिताजी और भाभी मेरा सुख देखकर खुश नहीं | काश… अब कहाँ जाऊँगी इन्हें लेकर ? कैसे होगा ?” रोना दबाने के लिए सरोज ने साड़ी का पल्ला मुँह में दबा लिया |

“बिब्बी…” चाय का ग्लास नीचे रखकर, पास ही ज़मीन पर पंजों के बल उकडूँ बैठ बिब्बी के बाल सहलाती विन्नी बोली “शकुंतला बुआ की बातों को क्यों लगाती हो दिल से ? अरे, तुम्हारे अलावा और कौन है हम सबका ? हूँ ? मन छोटा न करो | भगवान सब ठीक करेंगे | लो चाय पी लो…” शकुंतला बुआ की बातों से विन्नी की भी झुँझलाहट बढ़ गई थी “आज हमारा वक़्त खराब है तो सब बातें बनाते हैं | कितना किया बाबा जी ने इन लोगों के साथ ! अगर वो और नाना जी कुछ न करते तो पूछती शकुंतला बुआ से कैसे लगवातीं उमेश भैया की नौकरी ? भगवान देखेगा उन्हें तो…”

“उन्हें तो जब देखेगा तब देखेगा, पहले तो हमें ही देख रहा है…” विन्नी को टोकते हुए सरोज बोली “ऐसी बातें नहीं कहते किसी के लिए | पहले ही कम परेशानियाँ हैं क्या जो अब दूसरों के बारे में उल्टा सीधा बोलकर उनकी हाय मोल लें ? जा, जाके बच्चों को देख | कुछ खिला पिला दे उन सबको भी | उनकी माँओं को तो न जाने कब सुध आएगी | अच्छा तू रुक, मैं ही जाके देखती हूँ…”

“न न, पहले चाय पियो |” बिब्बी का हाथ पकड़ उन्हें वापस बैठाती विन्नी बोली “पता है दो बार गरम करके ला चुकी हूँ ! मैं देखती हूँ उन दोनों को | तुम्हें मेरी कसम है बिब्बी, चाय पिए बिना यहाँ से मत उठाना, और प्लीज़, किसी की बातों पर ध्यान मत दो…” फिर अपनी खुद की आँखों में भर आए आँसुओं को छुपाने की गरज़ से चाय का ग्लास बिब्बी को पकड़ाकर जल्दी से बाहर निकल गई |

“हुम्म !… किसी की बात पर ध्यान मत दो… मुझे समझाती है | खुद को देखा है कभी ? अरी पगली क्या मुझे दिखाई नहीं दे रहे तुम सबके आँसू ? अरे माँ हूँ तुम सबकी ! कितना भी छिपा लो मुझसे, तुम सबके हर पल की खबर रहती है मुझे…” सरोज मन ही मन बोली, एक ठंडी साँस भरकर आँसुओं को पोंछा और मन न होते हुए भी चाय का ग्लास मुँह को लगा लिया | ग्यारह बजने को आए थे, पर बाहर की धुँध अभी भी छंटी नहीं थी | सरोज के मन की धुँध भी छंटने का नाम नहीं ले रही थी |
विन्नी बड़ी बेटी थी सरोज की | पूरा नाम था विनीता | प्यार से सब लोग विन्नी बुलाते थे | अप्रेल सन ५६ की पैदाइश थी | अब चवालीस की होने को थी, पर थी बिल्कुल बच्चों जैसी | पैदा हुई थी तो कई रात तक ठेकेदार भगवानदास की हवेली रौशनी से नहाई थी और कई दिनों तक शहर भर को दावतें दी जाती रही थीं | सरोज और जयंत ने दोनों हाथों से ज़ेवर, कपड़े और रूपये लुटाए थे | दिल खोलकर दान दिए थे | बड़ी लाडली थी बाप की भी, दादी बाबा की भी और नानी नाना की भी- एक ये और एक वो नीलम |

हवेली ! हाँ जिसका कोई नामो निशान भी बाक़ी न बचा था | हाँ वह खुद ज़रूर बची रही ज़िंदा लाश बनी, एक खंडहर की तरह… सोचकर अपने ऊपर ही एक व्यंग्य भरी हँसी हँस दी थी सरोज | खुद भी तो साठ की हो चुकी थी | रिटायर हो चुकी थी | विन्नी से दो बरस पीछे नमिता यानी निम्मी पैदा हुई थी | उससे दो साल पीछे हुआ था राकेश- यानी कि पप्पू | उसके पैदा होने पर भी शहर भर को दावतें दी गई थीं | यों दावतों के दौर तो चलते ही रहते थे उस हवेली में | मिश्रानी जी और महाराज जी को साँस लेने की फुर्सत कहाँ मिलती थी ? लगे रहते थे सारा सारा दिन और आधी आधी रात तक रसोई में | पप्पू से दो बरस छोटा था राघव यानी रग्घू | और फिर सबसे छोटी थी गुंजन | प्यार से जिसे सब गुड्डो बुलाते थे | रग्घू से तीन बरस पीछे पैदा हुई थी | सभी ने कहा था भारी मूलों में हुई है, भारी है बाप पर, उपाय करवा लो कुछ | पर ये मानते ही नहीं थे इन सारे अंधविश्वासों को | आखिर को हुआ क्या ? पर गुड्डो का भी क्या दोष ? उस बेचारी को तो बाप का प्यार नसीब ही नहीं हुआ | मरी नहीं तो… भयंकर अवसाद के क्षणों में भी किसी बात को याद कर मन ही मन मुस्कुराती सरोज सोचने लगी- गुड्डो नाम रखा था उन्होंने | बबीता उस वक़्त की फेमस हीरोइन थी तो कहते थे कि स्कूल में इसका नाम बबीता ही लिखवाएँगे | पर इसका तो वक़्त ही नहीं दिया भगवान ने | “भँवरे की गुंजन है मेरा दिल…” गाना इसे खुद को इस कदर पसंद था कि जब नाम लिखवाने गई पिताजी के साथ तो अपने आप ही गुंजन नाम लिखवा आई |

थोड़ी देर शून्य में ताकती रही सरोज और फिर से एक ठंडी साँस भर सोचने लगी- तीन बरस की थी तो माँ को उठा लिया | दूसरी माँ को लोगों ने सौतेला बना दिया | बाप को फुर्सत ही नहीं थी नेतागिरी से | हाँ, शादी के बाद जैसे स्वर्ग में पहुँच गई थी | पर उस ऊपरवाले देखा नहीं गया | और कुछ तो नहीं बचा था | पर हाँ, पाँच बच्चों का हरा भरा परिवार ज़रूर था | ज़्यादा तो नहीं दे पाई थी, पर कोशिश की थी सभी तरह के सुख बच्चों को देने की ताकि बाप की कमी न महसूस हो उन्हें | पर शायद इतना भी पसंद नहीं था भगवान को- तभी तो न जाने कब में हँसता खेलता परिवार बरबादी के कगार पर आ खड़ा हुआ | जाने किसकी नज़र खा गई हमारे घर को ? मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था ? कौन से पाप किये थे ऐसे मैंने जिनकी सज़ा मुझे और मेरे बच्चों को मिली ? एक दिन भी तो चैन की साँस नहीं मिली मुझे… शादी के बाद के दस बरस अगर छोड़ दें तो… और दस भी क्या… एक बरस तो जीना मरने के जैसा ही था… जैसे तैसे करके इन दोनों के सहारे जी रही थी की ये भी… क्या औरत की योनी में जन्म लेना इतना बड़ा अपराध है कि उसकी इतनी बड़ी सज़ा दी जाए ? अब नहीं सहा जाता भगवान… दया करो मुझ अभागी पर, मुझे भी कुछ पल का आराम चाहिए, सुकून चाहिए !”

चाय का ग्लास जो हाथ में उठाया तो उठा ही रह गया | खोई हुई थी अपने अतीत में- अतीत भी ऐसा कि दुश्मन को भी नसीब न हो | छोटी सी थी सरोज तब, यही कोई ढाई-तीन बरस की, पर याद सब कुछ है उस उम्र का भी, जब एक सुबह चाची, बुआ और दादी के ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ें सुन आँख खुल गई थी | घबराहट में चारों तरफ देखा तो माँ कहीं नज़र नहीं आई | एक ही चारपाई पर सोती थी माँ के साथ | माँ क्या, असल में तो पिताजी की ज़्यादा लाडली थी सो उन्हीं के पास सोती थी | बान कि बुनी हुई दो चारपाईयां थीं जो एक दूसरी से सटाकर बिछा दी जाती थीं नीचे तिदरी में | एक पर पिताजी लेटते थे और दूसरी पर माँ, और सरोज इन दोनों के बीच में पिताजी की चारपाई पर लेटती थी | चाचा जी बाहर बैठक में चाची के साथ सोते थे | आजकल बुआ भी आई हुई थीं तो वो ऊपरवाली तिदरी में दादी के साथ सोती थीं |

पर इन दिनों अक्सर पिताजी साथ नहीं सोते थे | सारा दिन सरोज की आँखें पिताजी को ढूँढती रहती थीं, पर पिताजी कहीं दिखाई नहीं देते थे | पता नहीं कहाँ किस काम में बिज़ी रहते थे | सारा सारा दिन घर भर में या तो ख़ामोशी छाई रहती थी, या फिर तीनों औरतें माँ को किसी न किसी बात पर झिड़कती रहती थीं | फिर चाचा किसी न किसी बात पर सब पर गुस्सा दिखाते रहते थे | सरोज को तो बात बात पर डाट पड़ जाया करती थी | माँ कभी कुछ बीच में बोलने की कोशिश करती तो उसे भी झाड़ दिया जाता था | कभी कभी तो माँ पर चाचा हाथ भी उठा देते थे | तब माँ अपना रोना छिपाने के लिए धोती का पल्ला मुँह में दबाकर सरोज को लिए तिदरी में भाग जाया करती थीं | लगता था जैसे माँ किसी को फूटी आँखों नहीं सुहाती थीं | दिन भर माँ को किसी न किसी बात के लिए ताने देना जैसे सबका ज़रुरी काम हो गया था | कभी कभी चाची और बुआ भी माँ को घसीटते हुए पिटाई कर देती थीं | माँ के सारे बदन पर छोटे छोटे नील सरोज ने देखे थे छिपकर, जब कभी माँ कपड़े बदल रही होती थीं | सरोज आज सोचती है कि माँ बुआ और चाची दोनों से बड़ी थीं उम्र में भी, फिर दोनों की इतनी हिम्मत कैसे हो जाती थी ? होती कैसे न ? जिसके पति को ही उसका होश न हो, भला ससुराल के बाक़ी लोग क्यों सोचेंगे उसके बारे में ?

सरोज को अच्छी तरह याद है जब माँ खाना बनाती थीं तो चाची, बुआ या दादी किसी को भी अच्छा नहीं लगता था | या फिर अच्छा न लगने का नाटक करते थे, क्योंकि सरोज को तो माँ के हाथ का बना खाना ही सबसे अच्छा लगा करता था | कभी कभी जब माँ को “लाल बुखार” आ जाया करता था और उनका रसोई में घुसना बंद कर दिया जाता था तब चाची खाना बनाती थीं | छिः, चाची तो इतना गन्दा खाना बनाती थीं कि सरोज खाना छोड़कर उठ जाती थी | तब चाची गुस्से में भरकर बोलती थीं “बहुत सर चढ़ा रखा है छोकरी को जिज्जी | देखियो एक दिन कैसा नाम डुबावेगी…” और माँ सरोज को लेकर तिदरी या बैठक में जा बैठती थीं | जब भी माँ चाची के सामने पड़ती थीं तो चाची घूँघट की आड़ से न जाने कैसे कैसे इशारे करके माँ को परेशान किया करती थीं | तब सरोज को कुछ समझ नहीं आता था | पर अब जब ध्यान आता है तो सरोज को याद आता है कि उन इशारों का मतलब होता था “आने दो जेठ जी को, घर से न निकलवा दिया तो मेरा नाम भी धनिया नहीं…” माँ के पास कोई रास्ता नहीं होता अपना दुःख कम करने का, सिवा इसके कि अकेले में हिड़क हिड़क कर रो लिया करती थीं | सरोज तब नहीं समझ पाती थी कि घर में ये सब क्या चलता रहता था | हाँ इस सबका एक असर ज़रूर हो रहा था सरोज के बालमन पर कि उसके दिल में सबके लिए भयंकर ज़हर भरता जा रहा था- यहाँ तक कि पिताजी के लिए भी | तभी तो पिताजी की लाडली होते हुए भी, जब नई माँ आई तो पक्की तौर पर उसके मन में बैठ गया था कि पिताजी भी सौतेले हो गए हैं | घर के माहौल से दूर रहने के लिए वह सारा सारा दिन वैदनी चाची की पद्मा और गली के बच्चों के साथ खेलती रहती थी | घर जाने का मन ही नहीं होता था बच्ची सरोज का…

ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ था कि पिताजी इतने अधिक दिनों के लिए घर से बाहर रहे हों | पर इस बार कुछ ऐसा ज़रूर था जिसके कारण सारा घर, ख़ासतौर से दादी और चाचा बेहद परेशान रहते थे | यही कारण था उन दोनों का सारा गुस्सा और दुःख माँ पर ही उतरता था | रही सही कसर पूरी कर देती थीं चाची और बुआ और…

वैसे वैदनी चाची भी कौन सी कम थीं जले पर नमक छिड़कने में ? हर रोज़ ही आ बैठती थीं दोपहर में अपनी मैदा लेकर | इधर दादी और चाची भी मैदा गूँथ लेती थीं | भीतर से ताई भी आ जाया करती थीं नीचे की तरफ थैले जैसा लटकता अपना मोटा पेट हिलाती | माँ भीतर रसोई में काम कर रही होती थीं और ये चारों औरतें दहलीज़ में चारपाई बिछा कर बैठ जाया करती थीं | बाहर मेन गेट से भीतर घुसते ही एक बड़ी सी दहलीज़ थी | उसमें से भीतर जाकर बिलकुल सामने दो कमरे थे जो कैलाश के पास थे | फिर दाहिने हाथ पर रसोई थी | उस ज़माने के हिसाब से पक्की रसोई- चौड़ी लाल ईंटों का फर्श | एक तरफ मिट्टी का चूल्हा था जिसे माँ रोज़ कपड़े से साफ करके मिट्टी का लेप किया करती थीं | चाची अक्सर कुछ न कुछ गिरा दिया करती थीं जान बूझकर, जिससे कि माँ को फिर से चूल्हा साफ करके मिट्टी लीपनी पड़े और उन्हें एक पल भी आराम न मिले | कभी कभी माँ चूल्हे को गोबर से भी लीपती थीं |

सरोज को गीले गोबर से घिन आती थी | बड़ी होने पर होली के दिनों में जब साथ की लड़कियाँ गोबर इकठ्ठा करके बुरकल्ले बनाकर, सुखाकर उनकी माला बनाती थीं होली पर डालने के लिए तब भी सरोज बस दूर खड़ी तमाशा देखती रहती थी | इसी तरह जब माँ फर्श को गोबर से लीपती थीं तो जब तक वह सूख न जाता था, सरोज कमरे में नहीं जाती थी | दादी बताती थीं कि सरोज जब छोटी थी तो उसे मिट्टी खाने की आदत पड़ गई थी- शायद कैंल्शियम की कमी रही होगी | तब जहाँ उसे बिठाते वहीँ फर्श नाख़ून से खुरचकर मिट्टी निकालकर खा जाया करती थी | तब माँ ने सरोज को नीचे बैठाने से पहले फर्श को गीला करना शुरू कर दिया था, क्योंकि माँ जानती थी कि सरोज गीली मिट्टी को हाथ भी नहीं लगाएगी |

रसोई के ठीक सामने एक तिदरी थी- तीन दरवाज़ों वाला एक कमरा- और तिदरी के साथ ही ऊपर वाले हिस्से में जाने के लिए सीढ़ियाँ | तिदरी के पीछे दहलीज़ के ही साथ चबूतरे की तरफ बैठक थी | बैठक में चबूतरे से भी जाया जा सकता था और तिदरी से भी | फिर छत पर तिदरी और बैठक के ऊपर आगे पीछे दो कमरे बने थे | पीछे वाले कमरे में एक कोने में दहलीज़ के ऊपर बना था भंडार, जिसमें घर का सारा सामान रखा जाता था | एक ओर को गुसलखाना बना था |

तो, दहलीज में दोनों तरफ से खुली हवा आने के कारण दादी, बुआ, चाची, ताई और वैदनी चाची सबकी सब वहीँ आकर बैठ जातीं अपनी अपनी मैदा के जवे तोड़ते तोड़ते ऊँची आवाज़ मैं माँ को सुनाती हुई पहले तो वेदनी चाची बोलना शुरू करतीं “अरी माम्मी, क्या योई मिली ही हमारे जेठ जी कूं ? न कोई सलीका न हुनर, न पैसा लत्ता लाई साथ में, भिखमंगों के घर की ही लोंडिया मिली ही बियाने कूं ?”

“अब क्या बताऊँ वेदनी…” दादी साँस भरती बोलतीं “हमारे भैया को तो आदर्श दिखाना था न | लड़की खूबसूरत हो, भले ही गरीब घर की हो | ले आओ भाई, खूबसूरत ले आओ, मिल गया न ठेंगा…” अंगूठा नाचती दादी बोलतीं “हमने भी सोचा कि चलो सुन्दर लड़की आ जाएगी घर में तो गंगा का दिल लग जाएगा और वो यह सब छोड़ देगा | पर ये तो और भी बढ़ गया | पहले जब भी जेल जाता था तो बहुत से बहुत दो दिन में वापस आ जाता था | पर इस बार तो शायद पुलिस वालों ने भी… सत्यानाश हो इन मरे अंग्रेज़ों का…”

“अरे ठीक है, खबसूरत ही चाइये ही तो क्या और कोई न मिली ही ? न किसी काम की न धाम की | मनहूस निकली सो अलग | अब क्या चाट्टोगे ऐसी खबसूरती कू लेके ? जिस दिन से पांव धरे हैं इस घर में यो पुलिस वुलिस के चक्कर और बढ़ गए !” आग और भड़काती धनिया चाची बोलीं |

“और…” जावों के लिए मैदा का तार खींचतीं वैदनी चाची आगे बोलीं “अरी भागवान ! में तो सोच्चूँ हूँ अक जी चलो कोई बात ना, अब जैसी है वैसी है | चलो एकाध्धा लड़का बाला हो जावेगा तो जेठ जी भी जरा जम जावेंगे | पर ऐसे भाग कहाँ इस घर के ? इन्ने तो जनी भी तो यो छोकरी…”

आग में घी पड़ता रहता था एक दूसरी की बातें सुन सुनकर | कभी कभी इसी बीच चाचा आ जाया करते थे तो सबकी सब सहम कर चुप हो जाया करती थीं | चाची सर ढक लिया करती थीं और वैदनी चाची जल्दी जल्दी घूँघट काढ़कर चाची के कंधे पर हाथ मारकर इशारा करती खुसफुसाकर बोलतीं “अरे छोटे पंडत जी आ गए, चुप करो…” और चाचा बिना किसी की तरफ देखे सीधे भीतर चले जाया करते थे | हैंड पम्प पर जाकर हाथ मुंह धोते और साथ ही माँ को आवाज़ लगाते “भाभी जी खाना तो दे जाओ… इस धनिया को तो बातों से फुर्सत नहीं…” तभी पीछे पीछे चाची भी चली आती कमर मटकाती हुई और ठुनकती हुई बोलती “आ तो रई ही… अब तुम इस तरियों जल्दी मचाओगे तो ?” फिर रस्सी पर से अँगोछा उतारकर चाचा को हाथ-पाँव पोंछने को पकड़ाती और पूछतीं “कहाँ मारे मारे फिरते रओ हो ? कभी तो दो घडी चैन से बैठ जाया करो घर में…”

इसी बीच माँ थाल में खाना लगाकर ले आतीं और चाची गुस्से से आँखें तरेरकर माँ को देखती उसके हाथ से थाल लेकर छज्जे के नीचे पड़ी चारपाई पर रख देतीं | चाचा अपना पायजामा ऊपर चढ़ाकर वहीँ बैठ जाते खाने के लिए और चाची उन्हें पंखा झलना शुरू कर देतीं | कौर मुंह में रखते हुए आज्ञाकारी पति की भांति चाचा जवाब देते “गया था म्यूनिसिपालिटी के दफ्तर | सोचा था कि भाई साहब जब तक आते हैं तब तक मुझे ही मिल जाए वो काम | बाद में भाई साहब की सिफारिश पर कुछ और काम वहीँ मिल सकता था | पर वहाँ तो…”

“वहाँ तो क्या ?” चाची पूछतीं | तब तक बाक़ी की तीनों औरतें भी वहीँ आ जाती थीं और दूसरी चारपाई सरकाकर उस पर बैठ जाया करती थीं | फिर दादी चाचा से पूछतीं “कुछ हुआ ?”

“नहीं माँ |” कौर निगलते चाचा जवाब देते “जैसे ही वहाँ पहुँचता हूँ, सारे के सारे मुझे देखते ही ऐसे भाग खड़े होते हैं जैसे मैं कोई अछूत हूँ |” कुछ कुछ झुँझलाते चाचा जवाब देते |

“ऐसे कैसे चलेगा ?”

“क्या बताऊँ माँ | कर तो रहा हूँ भाग दौड़…” चाचा की झुँझलाहट धीरे धीरे बढ़ती जाती थी “स्साले सबके सब अंग्रेज़ों के चमचे हैं | पर मैं पूछता हूँ हमारे भाई साहब क्या दूसरों की तरह चैन से घर में नहीं बैठ सकते थे ? देख लो सबके सब कितने चैन से नौकरी कर रहे हैं | हमें तो सब समझते हों कि हम क्रांतिकारी हैं… और ये सब सिर्फ़ भाई साहब की वजह से | अरे क्या ज़रूरत थी इस सबमें कूदने की ? क्या यही रह गए थे अकेले देशभक्त सारे दुनिया जहान में ? आज हम सब किसी को मुँह दिखाने लायक भी नहीं रह गए हैं | ये कोर्ट, ये कचहरी… और एक बात और बता दूँ माँ कि सब कुछ ठीक हो जाएगा तो भाई साहब जैसों को कोई पूछेगा भी नहीं | अरे ऐसे हज़ारों लाखों लोग जान हथेली पर रखे फिर रहे हैं आज़ादी के लिए | बहुत होगा तो इतना कि जब कभी इन लोगों का आखरी वक़्त होगा तो अख़बारों में दो लाइनों की खबर छप जाएगी कि फलां स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इतनी आयु भोगकर स्वर्ग सिधार गया और अपने पीछे फलां फलां को छोड़ गया है और देश कभी उनके त्याग को नहीं भूल पाएगा…”

चाचा अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाते थे कि बुआ घुटनों पर सर रखकर सुबकना शुरू कर देती थीं “हाए रे मेरा गंगा, न जाने किस हाल में होगा | अरी खा गई मेरे भाई को यो हरयाने वाली…”

चाचा का पारा अब सातवें आसमान पर चढ़ जाता “चुप कर कावेरी ये सब…” दहाड़ते हुए बोलते “क्या रो रोकर अपशकुनी बखेर रखी है घर में ? अरे कोई मर गया क्या जो ये सब कर रही है ?” फिर छाती ठोककर कहते “अरे ज़िंदा है मेरा भाई, सही सलामत आवेगा घर वापस | कोई हाथ तो लगाकर देखे थानेदार कन्हैयालाल के बेटे को ! सालों की ईंट से ईंट न बजा दी तो मेरा नाम भी सूरज नहीं | और सुन लो कान खोलकर, अगर मैंने किसी को यों रोते धोते देख लिया तो मुझसे बुरा कोई न होगा | और लाली कहाँ गई ? हर वक़्त बस बुराइयाँ करना दूसरों की और ये रोने धोने का नाटक… बच्ची का ख़याल है किसी को ?”
माँ इस बीच गरम गरम फुल्का लेकर आ गई थीं | उसे देखते ही चाची बोल पड़ीं “तुम भी बस हमेंई केन्ना जान्नो हो | कभी पूछा है अपनी इन लाडली भाब्भी जी से सारा दिन क्यों टसुए बहाती रेवें हैं ? रोते रोते तो खाना पकावें हैं | फिर भला हजम कैसे होगा ? बस हमें ही टोकते रओ हो |”

“धनिया चुप हो जा…” चाचा आदेश के स्वर में बोलते |

“क्यों चुप हो जाऊं ? मुझी पे हुकम चलाना आवे है तुम्हें बस, और ये…”

“धनिया…” चाचा फिर कुछ तेज़ आवाज़ में बोलते |

“नहीं रहना मुझे चुप, आज तो…”

“धनिया…” अब चाचा शेर की तरह दहाड़ते और थाल में फुलका रखती माँ के ऊपर खाने का थाल फेंक देते | ज़ोरदार आवाज़ के साथ थाल ज़मीन पर गिरता “ठंन्न…” और चाचा की दहाड़ सुनकर बुआ और चाची अपना अपना ड्रामा भूल सहमकर चुप हो जातीं | चाचा चारपाई से उठकर नल पर पहुँचते और जल्दी जल्दी हाथ मुँह धोकर बाहर निकल जाते | दादी हक्की बक्की चाची को गुस्से में देखती खड़ी रहतीं | माँ चाचा के पीछे पीछे जातीं उन्हें मनाकर वापस लाने के लिए, पर चाचा उन्हें धक्का देकर बाहर निकल जाते | अब चाची माँ को रसोई की तरफ धक्का दे गुस्से में लाल लाल आँखें दिखाती बोलतीं “वो भूखे पेट चले गए खाना छोड़के, अभी भी मन ना भरा क्या जो और गुस्सा दिलाने चली ही उन्हें ? अरे अपने खसम कू तो खाए जा रई हो, मेरा तो छोड़ दो कम से कम…” चाची के धक्के से माँ रसोई में मुँह के बल गिरती | ये सब रोज़ रोज़ का ही चक्कर हो गया था उन दिनों | न जाने क्या हो गया था घर भर को ?

“बिब्बी… बिब्बी…” झुँझलाती हुई विन्नी एक बार फिर माँ को झकझोर रही थी “कहाँ खो जाती हो ? देखो तो कौन आया है ?”

“हैं… क्या… कौन है…” सरोज ने चौंककर सामने देखा तो शकुंतला खड़ी थी उमेश के साथ | सरोज अपनी जगह से उठने को हुई, लेकिन बैठे बैठे पैर सो गए थे, सो विन्नी ने सहारा देकर माँ को उठाया | सरोज पलंग पर आकर बैठ गई | वहीँ एक तरफ शकुंतला के बैठने के लिए जगह बनाती बोली “बैठो बीबी जी!”

“पायं लागूं मामी जी…” कहते हुए उमेश ने सरोज के पैर छुए |

“खुश रहो…” उमेश के सर पर हाथ रखकर सरोज ने जवाब दिया |

शकुंतला और उमेश बैठ गए तो सरोज विन्नी से बोली “अरी जा, जाके कुछ चाय वाय तो ले आ बुआ के लिए!” और शकुंतला बुआ की बातों को याद कर वन्नी झुँझलाती हुई बाहर निकल गई चाय लाने | अब बस वहाँ सरोज, शकुंतला और उमेश ही रह गए थे | थोड़ी देर तीनों में से कोई कुछ न बोला | एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था | आँगन में बच्चों के खेलने की आवाज़ें ज़रूर आ रही थीं दीवार घड़ी की टिकटिक के साथ | आखिर सरोज ने ही चुप्पी तोड़ी “कैसा चल रहा है तेरा काम उमेश ? अब तो सब ठीक है न ? वो झगड़ा तो नहीं रहा अब ?”

“नहीं मामी जी, सब ठीक चल रहा है…” उमेश ने संक्षिप्त सा जवाब दिया |

कुछ देर फिर से चुप्पी पसर गई | कुछ पल की ख़ामोशी के बाद शकुंतला बोली “भाभी, उमेश गया था वकील के पास | वो बोल रहा था की कुछ पक्का नहीं बता सकता जमानत के बारे में…”

सरोज ने कोई जवाब नहीं दिया, बस सूनी आँखों से उमेश को देखती रही | इस बीच उमेश के आने की खबर सुनकर हेमा और नीना भी वहाँ आ गई थीं और बुआ जी के पैर छू कर वहीँ पलंग के एक कोने पर बैठ गई थीं | शकुंतला ने बड़े प्यार का नाटक दिखाते हुए जी भर भरकर आशीर्वाद दिया “सदा सुखी रहो… दूधों नहाओ पूतों फलो…” और सरोज मन ही मन सोच रही थी क्या सच में कोई अर्थ है इन सारे आशीर्वादों का ? उसे भी तो यही आशीर्वाद मिला करते थे हमेशा… और भाभी को तो दादी ने जीते जी भले ही कुछ भी किया उनके साथ, पर जितनी सेवा भाभी ने उनकी की उसे देखकर मरते मरते आशीर्वाद ज़रूर देती गईं कि भगवान तेरे जैसी बहू हर किसी को दे, तू सदा सुखी रहे, सुहागिन रहे, क्या हुआ आखिर को ?”

इसी बीच विन्नी प्लास्टिक की ट्रे में दो चाय के ग्लास और स्टील की तश्तरी में मठरी रखकर ले आई थी | हेमा ने कोने में से स्टूल उठाकर बीच में रख दिया | विन्नी ट्रे स्टूल पर रखकर वहीँ दूसरी कुर्सी पर बैठ गई |

“निम्मी ना दिखाई दे रही, कहाँ है ?” शकुंतला ने पूछा तो सरोज ने सवालिया नज़रों से विन्नी की तरफ देखा और फिर खुद ही बोल पड़ी “बच्चों के वास्ते कुछ नाश्ता पानी बना रही होगी |”

“हाँ री, पेट को तो पहले चाहिए… भले ही कुछ भी हो जाए…” और एक ठंडी साँस भरकर चाय का ग्लास हाथ में उठा लिया |
“बुआ वो वकील वाली क्या बात थी ?” बात का रुख बदलते देख विन्नी ने पूछा तो दोनों बहुएँ किसी अनुकूल उत्तर की आशा में बुआ की तरफ देखने लगीं | बहुओं का हाल देख सरोज का कलेजा मुँह को आ रहा था | अभी तो इनके खाने खेलने के दिन थे, ये सब क्या हो गया ? पर वह कर भी क्या सकती थी, सिवाय ठंडी साँस भरकर चुप करके बैठने के |

“गया तो था उमेश…” चाय का घूँट भरती और मठरी मुँह में डालती शकुंतला बोली “वो तो यूँ कहन लग रिया हा अक देक्खो जी, कुछ पक्का ना बोल सका पुनीत भी…” और फिर चाय का घूँट भरने लगीं | शकुंतला बुआ वैसे ठीक बोलती थीं, पर जब कुछ खाते पीते मगन भाव से बातें करती थीं तब अपनी बोली पर आ ही जाती थीं और विन्नी सोचती थी कि बुआ की वो बोली नाटक थी कि ये…

“मैं बताता हूँ विन्नी…” माँ को कुछ ठीक से ना बोलते देख झुँझलाकर उमेश बोला “मामी जी मैं मिला था वशिष्ठ से | अभी वहीँ से तो आ रहा हूँ | उसका कहना है कि अकेले राठौर से काम नहीं चलेगा | किसी और को भी साथ लेना होगा | तो वशिष्ठ ने कहा कि पुनीत को सौंप दिया जाए | वो अपने आप सब कुछ सँभाल लेगा | सुप्रीम कोर्ट में ही उसकी प्रेक्टिस है | जान पहचान भी काफी है उसकी | और फिर पप्पू रग्घू के बचपन का दोस्त भी है | क्यों विन्नी, तू क्या कहती है ?”

“मैं क्या बताऊँ भैया ? ये कोर्ट कचहरी- ये सब भला मैं क्या जानूँ ? सुभाष बाज़ार तक गए हैं | आते ही होंगे अभी | या फिर सतीश को आने दो | वो बिजनौर गए हैं | पहले तो नाना जी थे तो कुछ पता ही नहीं चला कब क्या होता रहा | अब तो वो भी नहीं रहे…” ठंडी साँस भरते हुए विन्नी ने जवाब दिया |

“अरे पिताजी और भाभी ने तो बहुत किया | उनका भी कौन था इन दोनों के अलावा…” सूनी आँखों छत को ताकती सरोज बोली “पिताजी ने भी कौन सा सुख देखा दुनिया में | पन्द्रह के थे तो सर से बाप का साया उठ गया | आज़ादी की लड़ाई चल ही रही थी, जिसने चैन ही नहीं लेने दिया | यहाँ नजीबाबाद आने के बाद से कुछ ठीक हुआ था, पर शायद मेरा दुर्भाग्य ही ले डूबा उन्हें भी | करमजली तो मैं ही हूँ न | और भाभी का भी क्या है, वो भी सूखकर काँटा हो चुकी हैं | हम सबका तो बस…”

“तो फिर एक बार अपनी बहन से बात करके क्यों ना देख लो हो ? है तो वो भी उसी बाप का बीज | बेट्ठी भी दिल्ली में है | उसका तो आदमी भी सुना कोई भौत बड़ा आदमी है | कोई बतावे हा अक काफी दूर लों जान पहचान है उसके मरद की | फोन करने में हरज क्या है ?” चाय का खाली ग्लास स्टूल पर रखती शकुंतला ने सुझाव दिया |

“हाँ मामी जी, सतीश बता रहा था कि नीलम के हस्बेंड की तो काफी सारे मिनिस्टरों से भी जान पहचान है | और कह रहा था कि जानकी देवी के यहाँ भी काफी आना जाना है उन लोगों का | जानकी देवी के हस्बेंड भी तो सुप्रीम कोर्ट में ही प्रेक्टिस करते हैं | और कुछ नहीं तो कम से कम रास्ता तो दिखा ही सकते हैं कि क्या करना चाहिए | आगे फिर हम देख लेंगे | और फिर सरेंडर तो कराना ही पड़ेगा | नगीना में भी कब तक बैठे रहेंगे दोनों | अच्छा है सरेंडर करने से पहले कहीं कुछ बात बन जाए तो कम से कम जमानत में तो आसानी हो जाएगी | वर्ना दिल्ली में कोई आसान काम नहीं है…” उमेश का सुझाव था |

सरोज ने एक बार दोनों बहुओं के मुरझाए चेहरों को देखा- क्या शक्ल निकल आई थी दोनों की | समझ नहीं पा रही थी क्या करे क्या न करे | कभी सोचती “नीलम को खबर की तो थी उस दिन, पर पता ना क्या बातें हुईं उसमें और विन्नी में कि ये उससे गुस्सा होके बैठ गई | अब वो खुद भी बात कर तो ले उससे, पर दो बरस से, जब से भाभी को लेकर गई है वो, हममें से किसी ने भी कोई खोज खबर भी तो नहीं ली- न उसकी और न ही भाभी की | भाभी के साथ जो कुछ यहाँ हुआ उसका गुस्सा भी होगा ही उसे | अब क्या ठीक होगा अपने मतलब पर उसे फोन करना ?” फिर दूसरा विचार मन में आता “तो क्या हुआ, छोटी बहन है मेरी | गोद में खिलाया है मैंने उसे | अब ठीक है, घर गिरस्ती में कुछ बात हो भी गई तो… रहेंगी तो हम बहनें ही…”

“ठीक है मामी जी फिर हम चलते हैं | आप देख लो नीलम को फोन करके | फिर कल मिलता हूँ | चलो अम्मा…” और सरोज के पैर छूकर माँ के साथ वापस चला गया उमेश |

“नीलम को फोन कर ही दूँ…” सोचती सरोज वहाँ से उठ गई | बैठक में फोन रखा था | फोन के पास जाती जाती सोच रही थी- थानेदार कन्हैयालाल और पंडित भगवानदास के वारिसों का क्या यही हाल होना था ?

क्रमशः……….