Monthly Archives: August 2013

मेरी बातें

आज़ादी के इस पुनीत पर्व पर अपनी एक पुरानी रचना के कुछ अंश “स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाओं” के साथ…

आज़ादी का दिन फिर आया |
बड़े यत्न से करी साधना, कितने जन बलिदान हो गए |
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न जाने कहाँ सभी वरदान खो गए |
आशाओं के सुमन न विकसे, पूरा हो अरमान न पाया ||१||
महल सभी बन गए दुमहले, और दुमहले किले बन गए |
कितने मिले धूल में, लेकिन कितने नये कुबेर बन गए |
आयोगों का गठन हुआ, मन का संगठन नहीं हो पाया ||९||
फाड़ रहा है आज मनुज धरती सागर अम्बर की छाती |
चन्दा क्या, मंगल के ज्वालामुखि में भी है फेंकी बाती |
मनु के सुत ने मनुज कहाकर भी मानवता को बिसराया ||१०||
फिर भी है संतोष कि धरती अपनी है, अम्बर अपना है |
अपने घर को आज हमें फिर नई सम्पदा से भरना है |
किन्तु अभी तक हमने अपना खोया बहुत, बहुत कम पाया ||११||
ग्राथित हो रहे अनगिनती सूत्रों की डोरी में हम सारे |
होंगे सभी आपदाओं के बन्धन छिन्न समस्त हमारे |
श्रम संयम आर अनुशासन का सुगम मन्त्र यदि हमको भाया ||१२||

मेरी बातें

उलझन मेरी

तनिक निकट आओ तब ही कुछ सुलझे ये उलझन मेरी |
मन में है मची हुई हलचल, है यही बड़ी उलझन मेरी ||
होगा तुमको ज्ञात, प्रेम की पगडण्डी कितनी सँकरी है |
पुष्पों के संग शूलों से भी भरी हुई यह डगर पड़ी है ||
पुष्पों पर चलने हित मग से शूल हटाओगे तुम कैसे |
तनिक निकट आओ तब ही कुछ सुलझे ये उलझन मेरी ||
तुम बन बैठे यदि निष्ठुर तो मुझको बड़ी दूर पाओगे |
और किसी एकाकी क्षण में फिर तुम व्याकुल हो जाओगे ||
कैसे मन बहलाओगे, व्याकुलता दूर भगाओगे |
तनिक निकट आओ तब ही कुछ सुलझे ये उलझन मेरी ||
आस निराशा की घड़ियों में नहीं कोई जब साथी होगा |
मेरी स्मृतियों का ही फिर कोई पुष्प खिलाना होगा ||
कैसे मुझे मनाओगे, और प्रेम पुष्प महकाओगे |
तनिक निकट आओ तब ही कुछ सुलझे ये उलझन मेरी ||

मेरी बातें

खुद ही से उलझ बैठे हैं

आपने एक प्रश्न किया था हमसे, किन्तु हम मौन बने बैठे हैं |
आपको लगता है हम निरुत्तर हैं, हम तो खुद ही से उलझ बैठे हैं ||
कल हम दोनों में जो बात हुई, उसकी मध्यस्थता करी जिसने
आज वे सभी लोग देखो तो कितने क़ामयाब बने बैठे हैं ||
किसी ने एक शब्द भी नहीं बोला, ना ही एक छन्द किसी ने लिक्खा
किन्तु फिर भी सारे ही मुखौटे ये क़िस्सों की क़िताब बने बैठे हैं ||
जिसने भी तुम्हारी मदभरी आँखें नज़र भरके एक बार देखी हैं
सारे ही वे दृश्य आज उसके लिये प्यार की शराब बने बैठे हैं ||

मेरी बातें

अन्तर्विरोध

है कितना अन्तर्विरोध मन में, कितनी लाचारी है |
जग के सिद्धान्तों को लख होती मुझको हैरानी है ||
हर एक परिचय के चेहरे पर देखो एक मुखौटा है
केवल नक़ली हैं रंग हैं इसमें, नहीं कोई मौलिकता है |
इसको चतुराई जग समझा, किन्तु यही नादानी है
जग के सिद्धान्तों को लख होती मुझको हैरानी है ||
वस्त्र समझकर प्यार भरे सम्बन्धों को सबने ओढ़ा
किन्तु पुराने हुए तनिक तब नया कोई नाता जोड़ा |
वस्त्रों के समान सम्बन्ध बदलना तो मनमानी है
जग के सिद्धान्तों को लख होती मुझको हैरानी है ||
ओ सम्बन्ध बदलने वालों, ओ नित रूप बदलने वालों
तुम रह जाओगे एकाकी, अहंकार में जीने वालों |
सम्बन्धों से रहित नग्न सम व्याकुल होता प्राणी है
जग के सिद्धान्तों को लख होती मुझको हैरानी है ||
स्नेहपूर्ण निस्वार्थ ये नाते मन की द्विविधा को ढक देते
मन की घोर निराशा को निज स्नेहबिन्दु से ये धो देते |
मत फाड़ो इन पर्दों को, इनमें ये छिपी कहानी है
जग के सिद्धान्तों को लख कर होती मुझको हैरानी है ||

मेरी बातें

दिल्ली की झमाझम बारिश के बीच कुछ महिला संगठनों के तीज के कार्यक्रमों में भी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | ऐसे में मन को कुछ लिखने से नहीं रोक पाई, जो प्रस्तुत है…

आए सावन रुत आए, मेरे मन भाए
कि सुध बिसर गई |
रिमझिम साज बजाए, संगीत सुनाए
कि मन मोरा बस में नहीं ||
पेड़ों पर झूले डलवाएँ, दूर गगन के पेंग बढ़ाएँ
ऊँचे उड़ते जाएँ, कि मन को भाएँ
कि मन मोरा बस में नहीं ||
दादुर मोर पपीहा गाएँ, पियु पियु की सब टेर लगाएँ
मीठी तान सुनाएँ, कि मन को भाएँ
कि मन मोरा बस में नहीं ||
झींगुर झिल्ली शोर मचाएँ, मन मेरे बहार भर जाएँ
मन में हूक उठाएँ, कि मन को भाएँ
कि मन मोरा बस में नहीं ||
घोर गरज बादल घहराएँ, दामिनि चमक दमक दिखलाए
पवन झकोरे खाए, कि मन को भाएँ
कि मन मोरा बस में नहीं ||
पाँवों में पायल झनकाएँ, हाथों में कँगना खनकाएँ
ता थेई नाच नचाएँ, कि मन को भाएँ
कि मन मोरा बस में नहीं ||

मेरी बातें

आज हमारे पतिदेव ने हमारी प्रिय अभिनेत्री मधुबाला जी का एक बेहद ख़ूबसूरत फोटो कहीं नेट से ढूँढ़कर हमें मेल किया | उसे देखकर उनकी शोख़ी और चंचलता, उनकी खूबसूरती, उनकी अदाकारी और उस सबके साथ साथ उनके जीवन के कष्ट, अधूरापन – और उतना सब होते हुए भी हर वक़्त मस्त रहना – सब याद हो आया जैसा कि सुना पढ़ा है उनके बारे में | हालाँकि आज उनका न तो जन्मदिन ही है और न ही “कुछ और”, फिर भी हमारी ये दोनों रचनाएँ हमारी उसी प्रिय अभिनेत्री को समर्पित हैं जिनकी फ़िल्में या गाने जब हम देखने बैठते हैं तो फिर घर में कोई हमें बीच में टोक नहीं सकता इतने मगन हो जाते हैं…

मैं तो जैसी हूँ वैसी ही रहना चहूँ

अपने में ही मस्त सदा मैं रहना चाहूँ
मैं तो जैसे हूँ वैसी ही रहना चाहूँ |
हर प्रयास है व्यर्थ बदलने का अब मुझको
तुम्हें चाहिये देवी, तो फिर जाकर ढूँढो और कहीं ||
अपनी मर्ज़ी से करती हूँ मैं काम सभी
अपनी मर्ज़ी से ही मैं जीवन जीती हूँ |
मैं जाना चाहूँ जहाँ, वहाँ मैं बढ़ जाऊँ
मैं पाना चाहूँ जिसे, उसे मैं पा जाऊँ |
हर प्रयास है व्यर्थ बदलने का अब मुझको
तुम्हें चाहिये देवी, तो फिर जाकर ढूँढो और कहीं ||
मन के पंखों से दूर गगन में जाती हूँ
और मस्त हवा की हमजोली बन जाती हूँ |
सूरज के संग करती हूँ मैं कितनी बातें
और रातों को चंदा से लोरी सुनती हूँ ||
हर प्रयास है व्यर्थ बदलने का अब मुझको
तुम्हें चाहिये देवी, तो फिर जाकर ढूँढो और कहीं ||
धिरकिट धिरकिट बादल की मिरदंग बजे
सांनीधप पधनीसां बूँदों की तब तान सजे |
बिजली की पायल तब पैरों में झनकाती
मैं ता थेई थेई तत नाच दिखाती जाती हूँ |
हर प्रयास है व्यर्थ बदलने का अब मुझको
तुम्हें चाहिये देवी, तो फिर जाकर ढूँढो और कहीं ||

ना जाने क्यों भटक रहा है आज मेरे मन का हर गीत

किस पर कविता लिखूँ बताओ मुझको ऐ मेरे मनमीत
ना जाने क्यों भटक रहा है आज मेरे मन का हर गीत ||
आज लगें सब चित्र अधूरे, भावहीन ये तसवीरें
रंग सारे बेरंग लगें, मत टांगो ऐसी तसवीरें |
कैसे रंग भरूँ इनमें बतलाओ ऐ मेरे मनमीत
ना जाने क्यों भटक रहा है आज मेरे मन का हर गीत ||
आज अमावस की काली रजनी सा घना अँधेरा है
ना जाने कब क्या हो, मन को इस चिंता ने घेरा है |
कैसे मन को धीरज दूँ, बतलाओ ऐ मेरे मनमीत
ना जाने क्यों भटक रहा है आज मेरे मन का हर गीत ||
जो आश्वासन मिले वो केवल शब्दों का ताना बाना था
एक बूँद भी स्नेह नहीं था, बस इसका ही तो रोना था |
कैसे स्नेह भरूँ इनमें, बतलाओ ऐ मेरे मनमीत
ना जाने क्यों भटक रहा है आज मेरे मन का हर गीत ||

मेरी बातें

जहाँ कोई अजनबी न हो

रेशम सी ये हवाएँ, अरमां नए जगाएँ |
आओ चलें कहीं दूर जहाँ कोई अजनबी न हो ||
हवा की सनसनाहटें, बदन में झनझनाहटें
हैं मन में कुलबुलाहटें, करें बताओ क्या ?
कोयल की मीठी बोली करती है अब ठिठोली |
आओ चलें कहीं दूर जहाँ कोई अजनबी न हो ||
वो बारिशों की झनझनन, समन्दरों की वो उफ़न |
लो बह चला हमारा मन, करें बताओ क्या ?
वो रेत महकी ठण्डी, करती है गुदगुदी सी |
आओ चलें कहीं दूर जहाँ कोई अजनबी न हो ||
लो बढ़ चले हैं हम वहाँ जहाँ न डर किसी का हो |
हो तेज़ बहती आँधियाँ, या घरघराता तूफाँ हो ||
मन में जगे जो अरमां, कोई सुला न पाए |
आओ चलें कहीं दूर जहाँ कोई अजनबी न हो ||

क्या पता

क्या पता / कल ये हसीं समां रहे न रहे
आरजूओं का ये चमन खिले ना खिले |
क्या पता / सुबह के इंतज़ार में प्रेम का ये दीया
जले और जल के बुझ जाए |
क्या पता / वक़्त की आँधी काँटे साथ लाए
या मुहब्बत के फूल मुरझा जाएँ |
रंग जो आज घुला है फ़ज़ाओं में
कल हो जाए बदरंग |
इसलिये दोस्तों / मत सोचो कल क्या हो |
जी लो इसी पल को जी भरके |
राधा को भरने दो ऊँची पेंगें
हवाओं के साथ / बादलों के पार
कान्हा को देने दो झोंटे / उमंग में भर
गाओ मस्त होकर मल्हारें
जो भर दें दिल के उस कोने को भी प्यार से / बहार से
अपनेपन से जो पड़ा है रीता |

गीता और धन संचय

प्रायः सभी धर्मों की मान्यता है कि व्यक्ति को यदि मोक्ष की अभिलाषा हो, अपने आध्यात्मिक उत्थान की दिशा में प्रयासरत हो तो उसे धन की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये | समस्त सुख वैभव का त्याग कर देना चाहिये | आम हिन्दू मान्यता के अनुसार अध्यात्म पथ का अनुसरण करने वाले व्यक्ति को अपनी समस्त धन सम्पत्ति दान करके हिमालय पर जाकर तपस्या करनी चाहिये | किन्तु क्या हिमालय पर जाकर तपस्या करके ही कोई व्यक्ति आध्यात्मिक कहलाने का अधिकारी हो जाता है ? क्या गृहस्थ आश्रम में रहकर पूर्ण निष्ठा के साथ अपने धर्म का पालन करते हुए समाज की सेवा करते हुए व्यक्ति को अध्यात्म का ज्ञान नहीं हो सकता ? मेरे विचार से तो गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए आत्मा के आध्यात्मिक उत्थान का प्रयास हिमालय में जाकर तपस्या करने से कहीं अधिक कठिन तपस्या है | हमारी आश्रम व्यवस्था के अनुसार तो ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास इन शेष तीन आश्रमों के व्यक्तियों के भोजन वस्त्रादि की व्यवस्था का भार गृहस्थी को ही वहन करना पड़ता था ताकि अपने भोजन और वस्त्रादि की प्राप्ति के प्रयास की ओर से ध्यान हटाकर एक ब्रह्मचारी अपने अध्ययन की दिशा में, वानप्रस्थी अपने स्वाध्याय की दिशा में और सन्यासी मोक्ष प्राप्ति की दिशा में निश्चिन्त भाव से प्रयत्न कर सके | इस प्रकार गृहस्थ आश्रम में रहते हुए आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करना वास्तव में बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी का कार्य है | साथ ही यह भी सत्य है कि अपने तथा अपने परिवार के साथ साथ समाज के प्रत्येक वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन की नितान्त आवश्यकता होती है | हाँ धनप्राप्ति का उद्योग करते समय यह बात अवश्य ध्यान में रहनी चाहिये कि धन की प्रकृति जल के सामान होती है – जो एक ओर तो जीवन के लिये आवश्यक है किन्तु दूसरी ओर डुबो देने की अथवा अपने साथ बहा ले जाने की सामर्थ्य भी रखता है | इसीलिये गीता धन प्राप्ति के प्रयास, धन के उपयोग और धन के त्याग अथवा अपरिग्रह इन तीनों बातों में एक सन्तुलन बनाए रखने के पक्ष में है | महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन युद्ध से घबराकर समस्त धन सम्पत्ति और परिवार का त्याग करके हिमालय पर जाकर तपस्या करने की बात कहते हैं तो श्रीकृष्ण उनकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार की समस्याओं का सामना जो नहीं कर सकता वह कायर कहलाता है | वास्तविक आध्यात्मिकता तो वही कहलाती है जिसका अभ्यास परिवार और समाज के बीच रहकर किया जाता है | क्योंकि वहाँ अपने उत्तरदायित्वों का वहन करते हुए पग पग पर मन के विचलित होने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं | जबकि पर्वत कन्दराओं में जीवन कठिन अवश्य होता है किन्तु मन के भटकने के कोई माध्यम वहाँ नहीं होता | इसलिये एक योगी के लिये वहाँ जाकर तपस्या करना सरल कार्य हो सकता है | आज मंदिरों में जाकर सर झुकाना और इस आशय से धन का दान करना कि ईश्वर उससे भी अधिक हमें देगा – यही बहुत से लोगों के लिये आध्यात्मिकता – अर्थात धर्मसाधन – का उद्देश्य बन गया है | किन्तु यदि ऐसा होता तो क्या कृष्ण अर्जुन के स्थान पर उनका युद्ध न लड़ लेते ? अर्जुन उनसे प्रार्थना करते और वे युद्धभूमि में जाकर अस्त्र उठा लेते | किन्तु ऐसा न करके अर्जुन का सारथी बनना उन्होंने स्वीकार किया | जो स्पष्ट रूप से इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर को कहीं जाकर ढूँढने की आवश्यकता नहीं, वह तो हमारे भीतर ही निवास करता है | अर्जुन ने जब इस तथ्य को समझ लिया कि कृष्ण उनसे अलग नहीं बल्कि वे तो स्वयं उनके अन्दर ही हैं तो वे युद्ध के लिये तत्पर हो गए | यही है वास्तविक आध्यात्मिकता | जब हम समझ लेते हैं कि कृष्ण अथवा परब्रह्म हमारे भीतर ही स्थित है तो हमें धन और आध्यात्मिक सफलता स्वतः ही प्राप्त होने लगती हैं, क्योंकि तब हमारा ध्यान धन प्राप्ति की अपेक्षा आत्मज्ञान की ओर लगा होता है |

संसार में कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो चाहते हैं कि उन्हें बिना कोई प्रयास किये ही धन सम्पत्ति अथवा सफलता प्राप्त हो जाए | कुछ ऐसे होते हैं जो अपनी सामर्थ्य से भी अधिक कार्य करते हैं | दोनों ही प्रयास अनुचित हैं | हम जो कुछ भी कर रहे हैं हमें चाहिये उसका भरपूर आनन्द उठाएँ | आनन्दपूर्वक जो कर्म किया जाएगा वह हमारे लिये सरल हो जाएगा और हम पूरे मन से तथा पूर्ण उत्साह के साथ उस कार्य को कर सकेंगे | और पूरे मन से तथा पूर्ण उत्साह के साथ किये गए कार्य में असफलता की कोई सम्भावना ही नहीं रहती | कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि फल की इच्छा से किया गया कर्म निम्न कोटि का कर्म होता है उस कर्म की अपेक्षा जो निष्काम भाव से किया जाता है | इसलिये हे अर्जुन कर्मयोगी बनो | फल की इच्छा करने वाले को अन्ततः कष्ट ही प्राप्त होता है, क्योंकि कर्मफल पर किसी का वश नहीं होता “दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनन्जय, बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव: |” (२-४९)

प्रायः हम सोचने लगते हैं कि शीघ्रातिशीघ्र हमारा कार्य सम्पन्न हो और हमें प्रयास तथा श्रम से भी अधिक उस कार्य का फल प्राप्त हो | किन्तु निश्चित रूप से ऐसा असम्भव है | हम जो कुछ भी करते हैं उसमें उसे शीघ्र ही पूर्ण करने का विचार बनाएँगे तो कुछ न कुछ अनुचित होने की सम्भावना बनी ही रहेगी | किन्तु यदि हम उसकी पूर्ति तथा फल की चिंता किये बिना पूर्ण एकाग्रता तथा पूर्ण निष्ठा के साथ उसमें लगेंगे और उस कार्य को अच्छी से अच्छी तरह करने का विचार सदा मन में रखेंगे तो उसका फल निश्चित रूप से उत्तम ही प्राप्त होगा | हम जब पूर्ण ह्रदय से एकाग्रचित्त होकर अपना कर्म करते हैं तो हम कुछ निर्माण कर रहे होते हैं जो हमारी आत्मा का स्पर्श करता है और हम आध्यात्मिकता का अनुभव करने लगते हैं | और तब धन सम्पत्ति, सफलता आदि स्वतः ही प्रवाहित होने लगते हैं | किन्तु यहाँ भी व्यक्ति के मन में इस प्रकार की शंका उत्पन्न होती है कि यदि उसे उसके कर्म में सफलता नहीं प्राप्त हुई तो उसका तो सारा आत्मविश्वास ही डगमगा जाएगा | यह शंका उसी सकाम कर्म से उत्पन्न होती है | यदि सफलता प्राप्त नहीं होती तो मन में विचार अवश्य आता है कि हमने तो पूर्ण निष्ठा, पूर्ण श्रम के साथ अमुक कर्म किया था, क्या और कहाँ चूक हो गई जो सफलता नहीं प्राप्त हो सकी, और फिर कर्म की ओर से ही मन हट जाता है | व्यक्ति निष्कर्म होकर बैठ रहना श्रेष्ठ समझता है और उसके मन में उदासीनता तथा सन्ताप बना रहता है | यही कारण है कि गीता कर्मरत रहने का समर्थन करते हुए यही कहती है कि फल की इच्छा मत करो अन्यथा इस प्रकार की शंकाएँ तथा उनके इस प्रकार के दुष्परिणाम बने ही रहेंगे | जब मन में किसी प्रकार की शंका ही नहीं होगी, फल प्राप्ति की कामना ही नहीं होगी क्योंकि कर्म भगवदर्पण बुद्धि से किया जाएगा, तो फल प्राप्त न होने पर आत्मविश्वास डगमगाने का भय भी नहीं रहेगा | बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिन्हें प्रथम प्रयास में सफलता प्राप्त हो जाती है | वास्तव में हमारी हर असफलता हमें कुछ सिखाकर ही जाती है | हमारी प्रत्येक असफलता हमें सफलता के निकट ले जाती है, क्योंकि प्रत्येक कर्म का कुछ न कुछ फल तो प्राप्त होता ही है | एक कर्मयोगी इसी जीवन में अपने समस्त गुणों और अवगुणों से मुक्ति पा जाता है | क्योंकि फल की कामना करके वह अन्य कर्म संचित नहीं होने देता | अतः व्यक्ति को कर्मयोग की ही देशा में आगे बढ़ना चाहिये | अपनी क्षमताओं और योग्यताओं के अनुसार फल की कामना किये बिना कर्मरत रहना ही निष्काम कर्मयोग कहलाता है |

फल की कामना करके यदि कर्म किया जाता हो तो यदि हमें उस कर्म में सफलता प्राप्त होती है तो हम प्रसन्न हो जाते हैं और यदि असफल रहते हैं तो दुखी होते हैं | किन्तु विचारणीय यह है कि जिस समय हम उस कर्म को कर रहे थे उस समय हमारे मन की स्थिति क्या थी ? क्या मन में पूर्ण उत्साह था उस कर्म को करने के लिये ? किसी प्रकार का अवसाद, भय अथवा चिन्ता तो नहीं था मन में उस समय ? कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वर्तमान की चिंता करो उस उसका आनन्द लेते हुए पूर्ण निष्ठा और योग्यता के साथ कार्य करो | हम जिस कार्य को करने के संकल्प लेते है और उस दिशा में प्रयास करते हुए समस्त बाधाओं को पार करने का प्रयास करते हैं और उस पल में आनन्दित रहते हैं और केवल उसी पल के विषय में सोचते हैं तो हम निरन्तर विजय की ओर, सफलता की ओर बढ़ते चले जाते हैं | और अंत में जब हम विजय प्राप्त कर लेते हैं तो परमानन्द की अनुभूति होती है | हाँ, स्थिरबुद्धि होकर कर्म करना चाहिये | गीता में ऐसे व्यक्ति को स्थिरप्रज्ञ कहा गया है – ऐसा व्यक्ति जिसकी बुद्धि स्थिर है, जिसे आत्मज्ञान है और जो कभी विचलित नहीं हो सकता | अतः धनप्राप्ति के लिये स्थिरप्रज्ञ होने की आवश्यकता है और तब पता चलता है कि स्वभावतः हम कितने प्रसन्नचित्त हैं |

धनोपार्जन और धनसंचय दोनों में अन्तर है | धनोपार्जन – आवश्यकताओं की पूर्तिमात्र के लिये धन कमाने में उन्नति हो यह तो व्यवहारिक दृष्टि से वांछनीय है ही l परन्तु जीवन का उद्धेश्य यही नहीं है l जीवन का असली उद्धेश्य महान चरित्रबल को प्राप्त करना है, जिससे भगवत्प्राप्ति का मार्ग सुगम होता है l धन, यश, पद, गौरव, मान, संतान – सब कुछ हो, परन्तु यदि मनुष्य में सच्चरित्रता नहीं है, तो वह वस्तुत:मनुष्यत्वहीन है l सच्चरित्रता ही मनुष्यत्व है l

“दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये सञ्चयो न कर्तव्यः । पश्येह मधुकरिणां सञ्चितमर्थं हरन्त्यन्ये ॥“ – पंचतन्त्र – धन का दो प्रकार से उपयोग किया जाना चाहिए – या तो दान करना चाहिये अथवा उसका स्वयं भोग करना चाहिए । किंतु उसका संचय नहीं करना चाहिए । क्योंकि जिस प्रकार मधुमक्खियों के द्वारा संचित धन अर्थात् शहद दूसरे लोग हर ले जाते हैं उसी प्रकार संचित धन का भी यदि सदुपयोग नहीं किया गया तो वह नष्ट हो जाएगा अथवा कोई अन्य हर ले जाएगा | निश्चित रूप से उक्त नीतिकार को इस बात का अनुमान था कि धनोपार्जन के तुरंत बाद ही उसका उपभोग संभव नहीं । उसका संचय तो आवश्यक है ही, ताकि कालांतर में आवश्यकतानुसार उसे उपयोग में लाया जा सके । उसका कहने का तात्पर्य भी निश्चित रूप से यही रहा होगा कि धनोपार्जन करते समय उसके उपभोग अथवा दान की योजना व्यक्ति के विचार में स्पष्ट होनी चाहिए । धनोपार्जन एवं तत्पश्चात् उसका संचय बिना विचार के निरर्थक है । बिना योजना के संचित वह धन न तो व्यक्ति के भोग में खर्च होगा और न ही दान में । नीतिकार ने मधुमक्खियों का उदाहरण देकर यह कहना चाहा है कि संचित धन देर-सबेर दूसरों के पास चला जाना है । यद्यपि यहाँ मधुमक्खियों का दृष्टांत कुछ हद तक अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है । मधुमक्खियाँ तो शहद का संचय भविष्य में अंडों से निकले लारवाओं के लिए करती हैं जिनके विकास के लिये उस शहद की परम आवश्यकता होती है | किंतु उस शहद को मनुष्य अथवा अन्य जीवधारी लूट ले जाते हैं । मनुष्य के संचित धन को भले ही कोई लूट न सके, फिर भी वह दूसरों के हाथ जाना ही जाना है, यदि उसे भोग या दान में न खर्चा जाए । क्योंकि “दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य । यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति ॥“ अर्थात धन की गति तीन प्रकार की होती है – दान, भोग, और नाश । जो व्यक्ति उसे न किसी को देता है और न ही उसका स्वयं भोग करता है, उसके धन की तीसरी गति होती है, अर्थात् उसका नाश होना है ।

धन कमाने की इच्छा ऐसी प्रबल और मोहमयी न होनी चाहिए जिससे न्याय और सत्य पथ छोड़ना पड़े, दूसरों का न्याय स्वत्व छीना जाये और गरीबों की रोटी पर हाथ जाये l जहाँ विलासता अधिक होती है . खर्च बेशुमार होता है, भोगासक्ति बड़ी होती है, झूठी प्रेस्टिज का भार चढ़ा रहता है, वहां धन की आवश्यकता बहुत बढ़ जाती है और वैसी हालत में न्यायान्याय का विचार नहीं रहता l गीता में आसुरी सम्पत्ति के वर्णन में भगवान् ने कहा है – ‘कामोपभोग-परायण पुरुष अन्याय से अर्थोपार्जन करता है l ‘ बुद्धिमान पुरुष को इतनी बातों पर ध्यान रखना चाहिए – विलासिता न बढे, फिजूलखर्ची न हो, जीवन यथासाध्य सादा हो , इज्जत का ढकोसला न रखा जाये, भोगियों की नक़ल न की जाये और परधन को विष के समान समझा जाये l इन बातों को ध्यान में रखकर सत्य की रक्षा करते हुए ही धनोपार्जन की चेष्टा करनी चाहिए और यदि धन प्राप्त हो तो उसे भगदर्पण बुद्धि से अपने निर्वाहमात्र का उसमें अधिकार समझकर शेष धन से भगवान् की सेवा करनी चाहिए l सेवा करके अभिमान नहीं करना चाहिए l

मेरी बातें

यादें

जाने कहाँ खो गईं पिछले सावन में अभिसार की यादें |
अब तो शेष रह गईं केवल मसले हुए हार की यादें ||
जाने वाले कल की यादें, आधे रहे स्वप्न की यादें |
जाने कहाँ खो गईं संग में गुनगुनाए मल्हार की यादें ||
मेर गिर जाने की यादें, तेरे हँस जाने की यादें |
जाने कहाँ खो गईं तेरी मेरी जीत हार की यादें ||
कभी अलौकिक प्यार की यादें, और कभी बस ख़ार की यादें |
जाने कहाँ खो गईं मचले जाने पर मनुहार की यादें ||