Category Archives: उपन्यास

तुम अच्छी हो – श्रेष्ठ औरों से

सीमित है मेरा संसार, एक छोटे से अन्धकारपूर्ण कक्ष तक…

जब नहीं होता समाधान किसी समस्या का मेरे पास

बैठ जाती हूँ अपने इसी अँधेरे कक्ष में

आँसू की गर्म बूँदें ढुलक आती हैं मेरे गालों पर

मेरी छाती पर, मेरे हृदय पर…

जानती हूँ मैं, कोई नहीं है वहाँ मेरे लिये

जानती हूँ मैं, कोई महत्व नहीं सत्ता का मेरी

जानती हूँ मैं, कुछ भी नहीं है मेरे वश में…

तब आती है हल्की सी परछाईं समर्पण की

रगड़ती हुई रीढ़ को मेरी

शान्त करती हुई माँसपेशियों को मेरी

और किसी की स्नेहसिक्त वाणी देती है मुझे आश्वासन

“चिन्ता मत करो

मैं ही लाई हूँ तुम्हें यहाँ

मैं ही निकालूँगी तुम्हें यहाँ से…”

कौन है यह ? मेरी परम प्रिय आत्मा…

जब सारा संसार फेर लेता है आँखों को मेरी ओर से

जब सारा संसार उठा लेता है विशवास मुझ पर से

पुनः सुनाई देती है वही स्नेहसिक्त ध्वनि

“तुम अच्छी हो, श्रेष्ठ औरों से…

समय आ गया है त्यागने का सारे दुःख दर्द

समझो आँसू की उन गर्म बूँदों को

जो गिर पड़ी हैं हम दोनों के मध्य

और गिराओ उन्हें

और तब तुम हो जाओगी एक

मेरे साथ….”

 

षडजान्तर

सुबह सुबह उनींदे भाव से खोली जब खिड़की रसोई की

बारिश में भीगे ठण्डी हवा के रेशमी झोंके ने

लपेट लिया प्यार से अपने आलिंगन में

और भर दिया एक सुखद सा अहसास मेरे तन मन में…

बाहर झाँका

वर्षा की बूँदों के सितार पर / हवा छेड़ रही थी मधुर राग

जिसकी धुन पर झूमते लहलहाते वृक्ष गा रहे थे मंगल गान…

वृक्षों के आलिंगन में सिमटे पंछी

झोंटे लेते मस्त हुए मानों निद्रामग्न लेटे थे…

कभी कोई चंचल फुहार बारिश की

करती अठखेली उनके नाज़ुक से परों के साथ

करती गुदगुदी सी उनके तन में और मन में

तो चहचहा उठते वंशी सी मीठी सुरीली ध्वनि में…

कहीं दूर आम के पेड़ों के बीच स्वयं को छिपाए कोयल

कुहुक उठती मित्र पपीहे के निषाद में अपनी पंचम को मिला

मानों मिलकर गा रहे हों राग देस या कि मेघ मलहार

कभी मिल जाती उनके बीच में दादुरवृन्द की गंधार ध्वनि भी

मानों वीणा के मिश्रित स्वरों के मध्य से उपज रही हो

एक ध्वनि अन्तर गंधार की

जो नहीं है प्रत्यक्ष, किन्तु समाया हुआ है षडज-गंधार के अन्तर में…

शायद इसीलिए बरखा के स्वरों से

गूँज उठता है षडज का नाद दसों दिशाओं में

घोषणा सी करता हुआ कि स्वर ही नहीं

प्रणव के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड भी उत्पन्न हुआ है षडज से ही…

और ऐसे सुरीले मौसम में खिड़की पर सिर टिकाए

सोचने लगा प्रफुल्लित मन

कि शायद हो गया है भान प्रकृति को

अपने इस श्रुतिपूर्ण सत्य का

तभी तो रात भर मेघ बजाते रहे मृदंग

और मस्त बनी बिजुरिया दिखलाती रही झूम झूम कर

अनेकों भावों और अनुभावों से युक्त मस्त नृत्य / सारी रात…

स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ.

आज 14 अगस्त है, स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व सन्ध्या… और कल फिर से पूरा देश स्वतन्त्रता दिवस की वर्षगाँठ पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाएगा… अपने सहित सभी को स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ…

स्वतन्त्रता – आज़ादी – व्यक्ति को जब उसके अपने ढंग से जीवंन जीने का अवसर प्राप्त होता है तो निश्चित रूप से उसका आत्मविश्वास बढ़ने के साथ ही उसमें कर्त्तव्यपरायणता की भावना भी बढ़ जाती है और उसकी सम्वेदनशीलता में भी वृद्धि होती है | क्योंकि स्वतन्त्र व्यक्ति को जीवन में रस का अनुभव होने लगता है – उत्साह और उमंग से भरा मन नृत्य करने लगता है – व्यक्ति को विकास की गति को तीव्र करने की सामर्थ्य प्राप्त होने के साथ ही उसे नियन्त्रित करने की समझ भी प्राप्त होती है – उसकी विचारधारा को सकारात्मक दिशा प्राप्त होती है – उसमें आत्मचिन्तन तथा आत्मनिर्णय की भावना दृढ़ होती है | जब व्यक्ति इस प्रकार से पूर्ण रूप से प्रफुल्लित होगा तो भला क्यों न वह अपना यह उत्साह – अपनी यह उमंग – अपने जीवन का ये रस – दूसरों में बाँटने का इच्छुक होगा ? वह हर किसी के साथ एकता और बराबरी का व्यवहार स्वतः ही करने लग जाएगा | स्वतन्त्र व्यक्ति के मन में किसी प्रकार के भेद भाव के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता |

इस स्वतन्त्रता दिवस पर आइये मिलकर संकल्प लें कि हम देश को स्वस्थ, सुखी तथा हरा भरा बनाने में योगदान देंगे…

प्रस्तुत है अपनी ही एक पुरानी रचना की कुछ पंक्तियाँ… स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाओं के साथ…

आज़ादी का दिन फिर आया |
बड़े यत्न से करी साधना, कितने जन बलिदान हो गए |
किन्तु हाय दुर्भाग्य, न जाने कहाँ सभी वरदान खो गए |
सत्य धर्म और शान्ति प्रेम का राग न मिलकर हमने गाया…
वर्षा आई उमड़ घुमड़ कर, काली घनी घटाएँ छाईं |
गरजे घन कारे कजरारे, मगर बिजलियाँ ही बरसाईं |
मन का मानस रहा शुष्क ही, कभी न ओर छोर लहराया…
बगिया भी है आँगन भी है, और गढ़े भी हैं हिण्डोले
पर मदमाती नहीं गुजरिया, कौन कहो फिर झूला झूले ?
मनभावन सावन फिर आया, लेकिन एक मल्हार न गाया…
जगमग जगमग दीवाली के जाने कितने दीप जलाए |
नगर नगर और गाँव गाँव में हर घर आँगन सभी सजाए |
किन्तु कहाँ का गया अँधेरा, और कहाँ उजियाला छाया…
मतवाली होली भी आई, लेकिन राख़ उड़ाती आई |
कलित कपोलों पर गुलाल की लाली कहीं न पड़ी दिखाई |
ढोल बजे, नूपुर भी छनके, मगर न केसर का रंग छाया…
महल सभी बन गए दुमहले, और दुमहले किले बन गए |
कितने मिले धूल में, लेकिन कितने नये कुबेर बन गए |
आयोगों का गठन हुआ, मन का संगठन नहीं हो पाया…
फिर भी है संतोष कि धरती अपनी है, अम्बर अपना है |
अपने घर को आज हमें फिर नई सम्पदा से भरना है |
किन्तु अभी तक हमने अपना खोया बहुत, बहुत कम पाया…
ग्राथित हो रहे अनगिनती सूत्रों की डोरी में हम सारे |
होंगे सभी आपदाओं के बन्धन छिन्न समस्त हमारे |
श्रम संयम आर अनुशासन का सुगम मन्त्र यदि हमको भाया…

सावन के झूले

हरियाली / मधुस्रवा तीज

कल हरियाली तीज – जिसे मधुस्रवा तीज भी कहा जाता है – का उमंगपूर्ण त्यौहार है, जिसे उत्तर भारत में सभी महिलाएँ बड़े उत्साह से मनाती हैं और आम या नीम की डालियों पर पड़े झूलों में पेंग बढ़ाती अपनी महत्त्वकांक्षाओं की ऊँचाईयों का स्पर्श करने का प्रयास करती हैं | सर्वप्रथम, सभी को सावन की मस्ती में भीगे हरियाली तीज के मधुर पर्व की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ… हम सभी ऊपर नीचे जाते आते झूलों की पेंगों के साथ ही अपने मनोरथों और महत्त्वाकांक्षाओं को इतनी ऊँचाईयों तक पहुँचाएँ जहाँ पहुँच कर उनके पूर्ण होने में कोई सन्देह न रह जाए…

कभी अपने पुराने दिनों की याद करते हैं तो ध्यान आता है कि कई रोज़ पहले से बाज़ारों में घेवर फेनी मिलने शुरू हो जाया करते थे | बेटियों के घर घेवर फेनी तथा दूसरी मिठाइयों के साथ वस्त्र और श्रृंगार की सामग्री लेकर भाई जाया करते थे जिसे “सिंधारा” कहा जाता था | बहू के मायके से आई मिठाइयाँ जान पहचान वालों के यहाँ “भाजी” के रूप में भिजवाई जाती थीं | और इसके पीछे भावना यही रहती थी कि अधिक से अधिक लोगों का आशीर्वाद तथा शुभकामनाएँ मिल सकें | यों तो सारा सावन ही घरों व में लगे आम और नीम आदि के पेड़ों पर झूले लटके रहते थे और लड़कियाँ गीत गा गाकर उन पर झूला करती थीं | पर तीज के दिन तो एक एक घर में सारे मुहल्ले की महिलाएँ और लड़कियाँ हाथों पैरों पर मेंहदी की फुलवारी खिलाए, हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ पहने सज धज कर इकट्ठी हो जाया करती थीं दोपहर के खाने पीने के कामों से निबट कर और फिर शुरू होता था झोंटे देने का सिलसिला | दो महिलाएँ झूले पर बैठती थीं और बाक़ी महिलाएँ गीत गाती उन्हें झोटे देती जाती और झूला झूलने के साथ साथ चुहलबाज़ी भी चलती रहती | सावन के गीतों की वो झड़ी लगती कि समय का कुछ होश ही नहीं रहता | पुरुष भी कहाँ पीछे रह सकते थे, महिलाओं के साथ झूले पर ठिठोली करने का ऐसा “हरियाला” अवसर भला हाथ से कौन जाने देता…? वक़्त जैसे ठहर जाया करता था इस मादक दृश्य का गवाह बनने के लिये |

श्रावण मास में जब समस्त चराचर जगत वर्षा की रिमझिम फुहारों में सराबोर हो जाता है, इन्द्रदेव की कृपा से जब मेघराज मधु के समान जल का दान पृथिवी को देते हैं और उस अमृतजल का पान करके जब प्यासी धरती की प्यास बुझने लगती है और हरा घाघरा पहने धरती अपनी इस प्रसन्नता को वनस्पतियों के लहराते नृत्य द्वारा जब अभिव्यक्त करने लगती है, जिसे देख जन जन का मानस मस्ती में झूम झूम उठता है तब उस उल्लास का अभिनन्दन करने के लिये, उस मादकता की जो विचित्र सी अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति के लिये “हरियाली तीज” अथवा “मधुस्रवा तीज” का पर्व मनाया जाता है | “मधुस्रवा अथवा मधुश्रवा” शब्द का अर्थ ही है मधु अर्थात अमृत का स्राव यानी वर्षा करने वाला | अब गर्मी से बेहाल हो चुकी धरती के लिए भला जल से बढ़कर और कौन सा अमृत हो सकता है ? वैसे भी जल को अमृत ही तो कहा जाता है |

मान्यता है कि पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती ने जब सौ वर्ष की घोर तपस्या करके शिव को पति के रूप में प्राप्त कर लिया तो श्रावण शुक्ल तृतीया को ही शिव के घर में उनका पदार्पण हुआ था | सम्भवतः यही कारण है कि इस दिन सौभाग्यवती महिलाएँ अपने सौभाग्य अर्थात पति की दीर्घायु की कामना से तथा कुँआरी कन्याएँ अनुकूल वर प्राप्ति की कामना से इस पर्व को मनाती हैं | अर्थात श्रावण मास का, वर्षा ऋतु का, मानसून का अभिनन्दन करने के साथ साथ शिव पार्वती के मिलन को स्मरण करने के लिये भी इस हरियाली तीज को मनाया जाता है |

तो आइये हम सब भी मिलकर अभिनन्दन करें इस पर्व का तथा पर्व की मूलभूत भावनाओं का सम्मान करते हुए सावन की मस्ती में डूब जाएँ… क्योंकि जब सारी पृकृति ही मदमस्त हो जाती है वर्षा की रिमझिम बूँदों का मधुपान करके तो फिर मानव मन भला कैसे न झूम उठेगा……… क्यों न उसका मन होगा हिंडोले पर बैठ ऊँची ऊँची पेंग बढ़ाने का……..

मेघों ने बाँसुरी बजाई, झूम उठी पुरवाई रे |

बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||

उमड़ा स्नेह गगन के मन में, बादल बन कर बरस गया

प्रेमाकुल धरती ने नदियों की बाँहों से परस दिया |

लहरों ने एकतारा छेड़ा, कोयलिया इतराई रे

बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||

बूँदों के दर्पण में कली कली निज रूप निहार रही

धरती हरा घाघरा पहने नित नव कर श्रृंगार रही |

सजी लताएँ, हौले हौले डोल उठी अमराई रे |

बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||

अँबुवा की डाली पे सावन के झूले मन को भाते

हर इक राधा पेंग बढ़ाए, और हर कान्हा दे झोंटे |

हर क्षण, प्रतिपल, दसों दिशाएँ लगती हैं मदिराई रे

बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||

 

पथ पर बढ़ते ही जाना है

अभी बढ़ाया पहला पग है, अभी न मग को पहचाना है |

अभी कहाँ रुकने की वेला, मुझको बड़ी दूर जाना है ||

कहीं मोह के विकट भँवर में फँसकर राह भूल ना जाऊँ |

कहीं समझकर सबको अपना जाग जाग कर सो ना जाऊँ |

मुझको सावधान रहकर ही सबके मन को पा जाना है ||

और न कोई साथी, केवल अन्तरतम का स्वर सहचर है

साधन पथ का पथिक मनुज है, और साधना अजर अमर है |

इसीलिए शैथल्य त्याग कर मुझे कर्म में जुट जाना है ||

परिचित निज दुर्बलताओं से, आदर्शोन्मुख श्वास श्वास पर

मंझधारों से डरे बिना अब बढ़ते जाना लहर लहर पर |

बाधाओं को दूर भगा निज लक्ष्य मुझे पाते जाना है ||

रजकण हिमगिरी ज्यों बन जाता, जलकण ज्यों सागर हो जाता |

जैसे एक बीज ही बढ़कर वट विशाल होकर छा जाता |

उसी भाँति मुझको भी जग के सारे मग पर छा जाना है ||

हो उच्छृंखल या श्रद्धानत या स्वच्छन्द विचरने वाला |

जैसा है मानव मानव है, जग की प्रगति इसी पर निर्भर |

अपनी दुर्बलताओं ही में इसे नया सम्बल पाना है ||

भय बाधा से भीति मानकर आगे पीछे कदम हटाना

नहीं रीत इस पथ की, ना ही कर्मयोगी का है यह बाना |

ह्रदय रक्त से ही नवयुग की आशा का साधन पाना है ||

निरत साधना में जो अपनी, उसे न सुध आती है जग की |

अविरत गति चलने वाले को चिंता कभी न होती मग की |

शूल बिछे हों या अंगारे, पथ पर बढ़ते ही जाना है ||

 

रात भर छाए रहे बादल

रात भर छाए रहे बादल / प्रतीक्षा में भोर की

और उनसे झरती नेह रस की हलकी हलकी बूँदें

भिगोती रहीं धरा बावली को नेह के रस में…

बरखा की इस भीगी रुत में

पेड़ों की हरी हरी पत्तियों / पुष्पों से लदी टहनियों

के मध्य से झाँकता सवेरे का सूरज

बिखराता है लाल गुलाबी प्रकाश इस धरा पर…

मस्ती में मधुर स्वरों में गान करते पंछी

बुलाते हैं एक दूसरे को और अधिक निकट

आपस में मिलकर एक हो जाने को

मिटा देने को सारा दुई का भाव…

मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू / फूलों की भीनी महक

मलयानिल की सुगन्धित बयार

कर देती हैं तब मन को मदमस्त…

और चाहता है मन गुम हो जाना / किन्हीं मीठी सी यादों में…

वंशी के वृक्ष से आती मीठी ध्वनि के साथ

चंचल पवन के झकोरों से मस्ती में झूमती टहनियों को देख

तन मन हो जाता है नृत्य में लीन…

ये प्रेमी वृक्षों के साथ गलबहियाँ किये / मस्ती में झूमती लताएँ

जगा देती हैं मन में राग नया

और तब बन जाता है एक गीत नया

अनुराग भरा, आह्लाद भरा…

फिर अचानक / कहीं से खिल उठती है धूप

और हीरे सी दमक उठती हैं हरी हरी घास पर बिखरी बरखा की बूँदें…

धीरे धीरे ढलने लगता है दिन

सूर्यदेव करने लगते हैं प्रस्थान / अस्ताचल को

और खो जाती है समस्त प्रकृति / इन्द्रधनुषी सपनों में

ताकि अगली भोर पुनः प्रभात के दर्शन कर

रची जा सके एक और नई रचना

भरी जा सके चेतनता / सृष्टि के हरेक कण कण में…

यही क्रम है बरखा की रुत में प्रकृति का

शाश्वत… सत्य… चिरन्तन… किन्तु रहस्यमय…

जिसे लखता है मन आह्लादित हो

और हो जाता है गुम

इस सुखद रहस्य के आवरण में

पूर्ण समर्पण भाव से……….

 

अरे मैं ही तो हूँ वह

मैं हूँ मन, मैं हूँ बुद्धि…

मैं हूँ लहर, मैं ही हूँ सागर भी…

किन्तु नहीं है अधिकार मेरा आज़ादी पर लहरों की…

हाँ, सागर का रेतीला तट अवश्य है नीचे मेरे पाँवों के

जो कभी भी खिसक कर

गिरा सकता है मुझे नीचे

उसी तरह, जैसे मेरी बुद्धि

खींचती है मुझे नीचे, और नीचे…

मैं ही हूँ पवन, मैं हूँ मलय सुगन्ध भी…

किन्तु नहीं रोक सकती मैं स्वच्छन्द प्रवाहित होती मलय पवन को

उसे है अधिकार लुटाने का मेरी सारी सुगन्ध

मानस पर समूची प्रकृति के

क्योंकि प्रकृति से ही तो पाई है मैंने ये सुवास…

मन का क्या है…

मन तो इकठ्ठा करता है ज्ञान

और ख़ुद क़ैद हो जाता है उसी ज्ञान में

और हो जाते हैं बन्द द्वार नवीन ज्ञान के…

जो कुछ ज्ञान है मुझे वह है मात्र आकार

और है कला पूर्ण करने की कार्य को…

जिसने विस्मृत करा दिया है उस ज्ञान को

कि नहीं है मुझसे परे कुछ भी…

जिसने तिरोहित करा दिया है उस अहसास को

कि मैं एक हूँ

लहरों और समुद्र की तरह…

पवन और सुगन्ध की तरह…

कि मैं वही हूँ, अरे मैं ही तो हूँ “वह” !!!

 

 

प्रेम और ध्यान

मैंने देखा, और मैं देखती रही / मैंने सुना, और मैं सुनती रही

मैंने सोचा, और मैं सोचती रही / द्वार खोलूँ या ना खोलूँ |

प्रेम खटखटाता रहा मेरा द्वार / और भ्रमित मैं बनी रही जड़

खोई रही अपने ऊहापोह में |

तभी कहा किसी ने / सम्भवतः मेरी अन्तरात्मा ने

तुम द्वार खोलो या ना खोलो / द्वार टूटेगा,

और प्रेम आएगा भीतर

कब, इसका भान भी नहीं हो पाएगा तुम्हें |

हाँ, यदि करती रही प्रयास इसे पाने का

गणनाएँ और मोल भाव

तो लौटना होगा रिक्त हस्त

क्योंकि रह जाएगा वह बाहर ही द्वार के |

क्या होगा, इसका प्रश्न क्यों ?

कब होगा, इसका विचार क्यों ?

कैसे होगा, इसका चिन्तन क्यों ?

कितना होगा, इसका मनन क्यों ?

छोड़ दो ये सारे प्रश्न, विचार, चिन्तन और मनन

प्रेम के प्रकाश को करने दो पार

सीमाएँ अपने समस्त तर्कों की

और तब, प्रेम बन जाएगा ध्यान |

ध्यान, जो तुम स्वयं हो

ध्यान, जो होगा तुममें

ध्यान, जो होगा तुम्हारे लिये

ध्यान, जो होगी तुम स्वयम् ||

ऐ भाई ज़रा देखके चलो

ये कौन सा मुक़ाम है, फ़लक नहीं ज़मीं नहीं

के शब नहीं सहर नहीं, के ग़म नहीं ख़ुशी नहीं

कहाँ ये लेके आ गई हवा तेरे दयार की ||

गुज़र रही है तुमपे क्या बनाके हमको दर-ब-दर

ये सोचकर उदास हूँ, ये सोचकर है चश्मे तर

न चोट है ये फूल की, न है ख़लिश ये ख़ार की ||

पता नहीं ऊपर वाले के दयार की हवा सदी के महान कवि श्री गोपालदास नीरज जी को भी कहाँ उड़ा ले गई | वो नीरज जो दिल की शायरी से ग़म का नग़मा लिखकर ख़त की शक्ल में रवाना कर देते थे ताकि हज़ारों रंग के नज़ारे उस ख़त से खिल उठें | लेकिन शायद उस ऊपरवाले को भी ज़रूरत महसूस हुई होगी कि कोई उसके लोक में आकर हर किसी को सावधान करने के लिए पुकारे “ऐ भाई ज़रा देखके चलो…”

जीवन दर्शन को गीतों में ढालने वाला नीरज जी के जैसा महान गायक कभी मरता नहीं, अपने गीतों के रूप में जीवन के यथार्थ से सबको परिचित कराता सदा के लिए अमर हो जाता है…

विनम्र श्रद्धांजलि उस महान आत्मा को… उन्हीं की पंक्तियों के साथ…

है प्यार हमने किया जिस तरह से उसका न कोई जवाब

ज़र्रा थे लकिन तेरी लौ में जलकर हम बन गए आफ़ताब

हमसे है ज़िन्दा वफ़ा और हमही से है तेरी महफ़िल जवाँ

हम जब न होंगे तो रो रो के दुनिया ढूँढेगी मेरे निशाँ

https://youtu.be/xwFstp6EtL0

https://youtu.be/pzWNlUduP_Q

https://youtu.be/vTQkB6MvKZc

 

मैं आशा पुष्प खिला जाती

मुझमें ही आदि, अन्त भी मैं, मैं ही जग के कण कण में हूँ |

है बीज सृष्टि का मुझमें ही, हर एक रूप में मैं ही हूँ ||

मैं अन्तरिक्ष सी हूँ विशाल, तो धरती सी स्थिर भी हूँ |

सागर सी गहरी हूँ, तो वसुधा का आँचल भी मैं ही हूँ ||

मुझमें है दीपक का प्रकाश, सूरज की दाहकता भी है |

चन्दा की शीतलता, रातों की नीरवता भी मुझमें है ||

मैं ही अँधियारा पथ ज्योतित करने हित खुद को दहकाती |

और मैं ही मलय समीर बनी सारे जग को महका जाती ||

मुझमें नदिया सा है प्रवाह, मैंने न कभी रुकना जाना |

तुम जितना भी प्रयास कर लो, मैंने न कभी झुकना जाना ||

मैं सदा नई चुनती राहें, और एकाकी बढ़ती जाती |

और अपने बल से राहों के सारे अवरोध गिरा जाती ||

मुझमें है बल विश्वासों का, स्नेहों का और उल्लासों का |

मैं धरा गगन को साथ लिये आशा के पुष्प खिला जाती ||