Monthly Archives: July 2015

बयार

मर्द शायद डरते हैं कि अगर औरतों ने भी आसमान को छू लिया तो उनकी पुरुष प्रधान सत्ता का क्या होगा | यों बड़ों के संसार में चिड़ियों का होना ना होना कोई अर्थ नहीं रखता, पर बच्चों के लिये रखता है | चिड़िया अपनी नियति के साथ प्रसन्न रह सकती है, उदास होना उसे नहीं आता, उस स्थिति में भी जबकि उसे पता होता है कि बाज घात लगाए बैठा है | वो हर स्थिति में बस अपनी स्वच्छन्द उड़ान को गति और स्वच्छन्द गान को लय देती रहती है | हम उसका घोसला उजाड़ सकते हैं, उसके पैर बाँध बच्चों के लिये खिलौना बना सकते हैं, उसके पंख काट पिंजरे में क़ैद कर सकते हैं, फिर भी वो हमारे आगे हाथ नहीं जोड़ती, हमारे पाँव नहीं पड़ती, हमसे दया की भीख नहीं माँगती | औरत की भी तो यही स्थिति है | पाँव उसके पाताल में गहरे पैठे होते हैं तो हाथ आकाश की ऊंचाइयों को छू रहे होते हैं | अपनी उँगलियों की पोरों में वो चाँद सितारों के साथ आँख मिचौली खेल रही होती है | यही कारण है कि उसकी ओर ललचाई दृष्टि से देखने वाला पुरुष उसे अपनी मिलकियत समझ सहेजना चाहता है | वह वृक्ष के मूल की भाँति सदैव ज़मीन से जुड़ी होती है | पानी की भाँति तरल होती है | पाताल के सामान गहरी होती है तो पर्वत सी ऊँची भी होती है | सम्पूर्ण पृथिवी नारीरूपा है और हर नारी पृथिवीरूपा, जो तरह तरह के शारीरिक और मानसिक बोझ ढोकर भी टूटती नहीं, दरकती नहीं | निरन्तर ऊर्जा से ओत प्रोत, कभी अमृत कलश ले देव दानवों के भाग्य का निर्माण करती है तो कभी अनसूया की भाँति तीनों देवों की माता भी बन जाती है |
बयार – प्रकाशक एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५

बयार

कुछ परिवारों को यदि अपवादस्वरूप छोड़ दिया जाए तो पता चलेगा कि चाहे कितना कुछ बदल चुका हो, समाज में फिर भी काफ़ी कुछ ऐसा है जिसे बदला नहीं जा सकता | मसलन आज भी अच्छे अच्छे पढ़े लिखे और पैसे वाले परिवारों तक में जब बेटी को उँगली पकड़ कर माता पिता चलना सिखाते हैं उसी समय उसे सिखा दिया जाता है कि बिटिया रानी तुम पराए घर की अमानत हो हमारे पास इसलिये मर्यादा के भीतर रहना है, अधिक ऊँची उड़ान भरने की नहीं सोचनी है, क्योंकि दो परिवारों के सम्मान का भार तुम्हारे सर पर है | बेटियाँ, जो हर पल माता पिता के दुःख दर्द को अनुभव करती हैं और आवश्यकता पड़ने पर बेटों की अपेक्षा कहीं अधिक ज़िम्मेदारी से माता पिता की सेवा करती हैं और जी जान से उन पर निछावर हो जाना चाहती हैं, उन्हें स्वयम् अपने जीवन के विषय में भी अहम फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया जाता | क्योंकि समाज जानता है कि जब तक वे पालतू बनी रहेंगी, जब तक उनके पंख नहीं निकलेंगे, तब तक आकाश की ऊँचाईयों को वे छू नहीं पाएँगी……..
बयार – प्रकाशक एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५

बयार

अपनी प्रगतिशील सोच के कारण पापा ने बेटी की शादी की कभी ज़ल्दी नहीं मचाई थी | पूरी आज़ादी दी थी उसे ऊँची उड़ान भरने की, साथ ही यह आश्वासन भी दिया था कि अगर कभी पंख थक जाएँ तो डर कर बैठ मत जाना, हम संभाल लेंगे | हम आपको कभी नीचे नहीं गिरने देंगे | परिवार पर चाहे आर्थिक संकट रहा हो या किसी अन्य प्रकार की समस्या, माँ पापा मालविका को किसी बात की ख़बर तक नहीं लगने देते थे | उल्टे एकाधी बार कभी वो अगर उदास हुई तो अच्छे मित्रों के समान उसकी उदासी दूर करने का जतन करने के साथ साथ नसीहत भी दे डाली कि भई जीवन इसी का नाम है, समस्याओं का साहस से सामना करो, पर हँसना मुस्कुराना कभी मत छोड़ो, क्योंकि यह ईश्वर की दी हुई अनमोल सौगात है | शायद यही वजह थी कि मालविका हँसती, मुस्कुराती, खिलखिलाती, बच्चों की तरह तालियाँ बजाकर ज़ोर से हँसती, घर भर न्यौछावर हो जाता था…

बयार – प्रकाशक एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५

बयार

भोर की पौ फट चुकी थी | भागती ट्रेन की खिड़की से झाँककर बाहर देखा तो एक चिड़िया ट्रेन से कुछ दूर पेड़ों की टहनियों पर उछलती फुदकती मानों ट्रेन की गति से प्रतियोगिता करना चाह रही थी | कभी किसी चिड़िया को ध्यान से देखा है ? चाहे वो हमारे बगीचे में फुदकती हो या फिर घर के आँगन में, हमारे साथ मानों हमारी ही दिनचर्या पर फुदकती रहती है | कभी किसी क्यारी में से अपनी चोंच से मिट्टी कुरेदती है तो कभी डाल डाल पर फुदक फुदक कर मीठा सुरीला गान सुनाती है – मानों सावन की उमड़ घुमड़ का नाच गाकर स्वागत कर रही हो | कभी घोसले के लिये तिनके चुनती दिखाई देती है तो कभी बच्चों की चोंच में अपनी चोंच से प्यार से दाना डालती मिल जाएगी | कभी क्यारियों में छिपे कीड़े मकोड़ों का शिकार करती है फुर्ती से तो कभी वही फुर्तीली चिड़िया दानों के लालच में शिकारी के बिछाए जाल में ख़ुद ही फँस जाती है | लड़की का जीवन भी क्या ऐसा ही नहीं होता ? आज जब बेटियाँ हर क्षेत्र में बेटों की बराबरी कर रही हैं तब उनके चिड़िया जैसे भोले भाले फुदकते तथा पूर्ण रूप से समर्पित और निस्वार्थ स्वभाव की भला कैसे उपेक्षा की जा सकती है ? आज जबकि घर आँगन की जगह गगनचुम्बी अपार्टमेंट्स ने ले ली है तो भला बेटियाँ भी पूरी स्वच्छन्दता के साथ ऊँची उड़ान क्यों न भरें ?….

एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५ से प्रकाशित मेरे उपन्यास “बयार” से…

बयार

वो नृत्य करती थी अपनी संतुष्टि के लिये | चाहती थी कि समस्त ब्रह्माण्ड उसके साथ एकलय हो, समभाव हो, आनन्द में नाच उठे | करती थी नृत्य समग्र को स्वयं में समाहित कर देने के लिये और स्वयं को अनन्त में लीन कर देने के लिये | अपनी किसी उपलब्धि पर, किसी ख्याति पर अभिमान नहीं था उसे | उसका था ही नहीं वह सब, वह तो था समग्र का… अनन्त का… पर क्या समझा पाती किसी को यह सब ? यह सब तो बस पापा ही समझ सकते थे…
मैं करती हूँ नृत्य / दोनों हाथों को ऊपर उठाकर, आकाश की ओर
भर लेने को आकाश अपने हाथों में |
चक्राकार घूमती हूँ / कई आवर्तन घूमती हूँ
गतों परनों तोड़ों और तिहाइयों के |
घूमते घूमते बन जाती हूँ बिन्दु / हो जाने को एक
ब्रह्माण्ड के उस चक्र के साथ |
मैं खोलती हूँ अपनी हथेलियों को ऊपर की ओर
बनाती हूँ एक मुद्रा, देने को निमन्त्रण समस्त विशाल को
आओ / नृत्य करो मेरे साथ
लय में लय, मुद्राओं में मुद्राएँ और भावों में भावों को मिला
और धीरे धीरे बढती है गति / छाता है उन्माद नृत्य में मेरे
क्योंकि मुझे होता है आभास अपनी एकता का, उस समग्र के साथ |
और मैं करती हूँ नृत्य, आनन्द में जीने के लिये उस क्षण को |
मैं करती हूँ नृत्य, शिथिल करने के लिये मन को
खो देने को अपनी सारी उपलब्धियाँ
रजकण की भाँति बिखरा देने को स्वयं को अनन्त में
मिटा देने को सारी सम्वेदनाएँ
विस्मृत कर देने को सारा ज्ञान
तथा सत्य में अन्तिम समर्पण को…

एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५ से प्रकाशित मेरे उपन्यास “बयार” से…

बयार

दादा जी यानी बड़े सरकार अचानक परलोक सिधार गए | रात को अच्छे ख़ासे सोए थे | सुबह जागे ही नहीं | देखा तो पता चला की पंछी तो पिंजरा तोड़कर उड़ चला था | सोते सोते ही हार्टफेल हो गया था | तेरह दिन के सोग के बाद चाचा ने फिर से कचहरी जाना शुरू कर दिया था | वहाँ सोग के दिनों में कोई रोता नहीं था | बैण्ड बाजे के साथ दादा जी का अंतिम संस्कार किया गया था – नाती पोतियों और धन सम्पत्ति से भरे पूरे इंसान का स्वर्गवास हुआ था – वो भी इतनी लम्बी उम्र भोगने के बाद | घर में सारी औरतों के पास न जाने कहाँ से सफ़ेद साड़ियाँ निकल आई थीं | अपनी क़ीमती सफ़ेद साड़ियों में लिपटी दादी और घर की शेष औरतें फ़र्श पर बिछे क़ीमती क़ालीनों पर गाव तकियों के सहारे बैठी रहती थीं – वो भी जब कोई “ख़ास” मिलने वाला आता था | “आम” मिलने वालों के लिये आँगन में ही चारों तरफ़ कुर्सियाँ और सोफे लगवा दिए गए थे | लोग आते थे | घरवालों के साथ सहानुभूति जताने के लिये कुछ देर बैठते थे | मिश्रानी जी के चूल्हे पर हर समय चाय काफी चढ़ी रहती थी और नौकर चाय नाश्ते की ट्रे लिये इस तरह हर तरफ़ घूमते रहते थे जैसे आजकल शादी की पार्टियों में स्नैक्स लेकर मेहमानों की बीच घूमते हैं | घरवाले सबके साथ मुस्कुराकर बात करते थे | मेहमान माता जी के चरण स्पर्श करते थे और बैरिस्टर साहब की आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करके अपने घरों को वापस लौट जाते थे | सब कुछ जैसे एक औपचारिकता भर होती थी | मालविका वास्तव में मृत्यु के उस “त्यौहार” को देखकर हैरान थी | अभी तो तेरहवीं भी नहीं हुई थी और इन लोगों पर जैसे कोई असर ही नहीं था | जैसे जब तक दादा जी थे तो ठीक था, अब नहीं हैं तो भी कोई बात नहीं | या शायद ये लोग पूरी तरह दार्शनिक थे कि आना जाना तो प्रकृति का नियम है, चिरंतन सत्य, तो व्यर्थ में दुखी होकर क्यों बैठा जाए ? जो भी हो, सारा सारा दिन जीजा-सालियों और सलहज-ननदोइयों की चुहल होती रहती थी | इसी बीच राजीव मामा जी की बेटी और बरेली वाली बुआ के बेटे की भी आँखें आपस में लड़ गई और “सोग” के इसी माहौल में दोनों की शादी की बात भी पक्की कर दी गई कि आते क्वार के नौरतों में रिश्ता और शादी एक साथ कर देंगे | अन्य नाते रिश्तेदार भी इसी फ़िराक में थे कि उनके बेटे बेटियों के लिये अच्छे सम्बन्ध हाथ लग जाएँ | सम्बन्धों की चिता पर हर कोई अपनी अपनी रोटियाँ सकने में लगा था | हाँ चाचा और तीनों बुआएँ ज़रूर उदास दिखाई देते थे जब अकेले होते थे | लोग अपने काम निकलवाने के चक्कर में अधिक थे | कुछ केवल इसलिये अपनी शक्लें दिखा रहे थे कि वक़ील साहब उनका ज़रा ख़ास ख़याल रखेंगे तो किसी की मंशा थी कि बैरिस्टर साहब के बड़े ओहदे वाले रिश्तेदारों के कारण उनके क्वालिफाइड बेटे को कोई अच्छी नौकरी मिल जाए | दादा जी के स्वर्गवास को काफी परिचित भुनाना चाहते थे |
बहरहाल, तेरह दिन का ये “मौत” का जश्न तेरहवीं के साथ सम्पन्न हो गया | दिन में शहर के लोगों का और पण्डितों का भोजन हुआ | माँ पापा से बाद में पता चला था कि तेरहों पण्डितों को कपड़े बर्तन वगैरा के साथ साथ तगड़ी दक्षिणा भी दी गई थी | दोपहर बाद पगड़ी की रस्म हुई थी, जिसमें लेने देने का सारा सामान आँगन में दहेज़ की तरह सजाया गया था | सारे रिश्तेदारों को भी उपहारों के साथ विदा किया गया था – बैरिस्टर साहब बड़े भाग्य वाले जो थे | इस सारे कार्यक्रम में पैसा पानी की तरह बहाया गया था | और फिर चाचा जी के “कचहरी” जाने की पूजा के साथ एक पखवाड़े तक चला यह जश्न अब समाप्त हो चुका था | “बड़े घरों” में मौत पर भी जश्न ही मनाया जाता है | वे लोग अपने आँसू किसी को नहीं दिखाते | उनके साथ कोई सहानुभूति दिखाए तो उनकी शान में बट्टा लगता है | शायद मिर्ज़ा ग़ालिब के इस बयान पर वे लोग सहमत थे “उसको भी अपने ग़म में मुब्तला न करो, वो तुम्हारा दोस्त है दुश्मन तो नहीं |”……
एशिया पब्लिशर्स, ए ३६, चेतक अपार्टमेंट्स, सेक्टर ९, रोहिणी, दिल्ली-८५ से प्रकाशित मेरे उपन्यास “बयार” से…